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________________ १८८] लोकविभागः [१०.१२१पञ्चाशतं सहस्राणि तद्विस्तारेण वणितम् । हेमसालपरिक्षिप्तं लान्तवेन्द्रमनःप्रियम्' ॥१२१ ।५००००। सचतुर्भागषड्गाढस्तावदेव च विस्तृतः । पञ्चाशं शतमुद्विद्धः प्राकारस्तस्य भासुरः ॥१२२ ।२५। [२] । १५० । गोपुराणां शतं षष्टया प्राच्यां सप्ततिविस्तृतम् । सषष्टिशतमुद्विद्धं दिक्षु सर्वासु लक्षयेत् ॥१२३ ।१६०। ७०।१६०। प्रासादोऽशीतिविस्तारस्तदर्ध च क्षितिं गतः । चतुःशतोच्छ्यो रम्यो लान्तवो यत्र देवराट् ॥१२४ ।८०। ४० । [४००]। प्रासादाः सप्तति रुन्द्रास्तदर्धच क्षिति गताः। उच्छितास्त्रिशतं साधं देवीनामिति वणिताः॥१२५ ।७० । ३५। ३५० । साधैः षोडशभिः स्त्रीणां सहस्रः परिवारितः । अष्टावग्रमहिष्यश्च पना नाम्ना च बल्लभा ॥१२६ ।१६५००। उत्तरस्तत्र कापित्थो लान्तवेन समः स्मृतः। पद्मोत्पलेति नाम्ना च वल्लभा तस्य विश्रुता ॥१२७ लान्तवो भवेच्छुक्रमिन्द्रकं दक्षिणे ततः । चत्वारिंशत्सहस्रोरुद[र्द]शमे शुक्रसत्पुरम् ॥१२८ चतुष्कमवगाढो गां तावदेव च विस्तृतः । विशं च शतमुद्विद्धः प्राकारस्तस्य सर्वतः ॥१२९ ।४।४। १२० । पंक्तिके बारहवें श्रेणीबद्ध विनानमें लान्तव इन्द्रका पुर है ॥ १२० ॥ उसका विस्तार पचास हजार (५००००) योजन प्रमाण बतलाया गया है । लान्तवेन्द्रके मनको प्रसन्न करनेवाला वह पुर सुवर्णमय प्राकारसे वेष्टित है ।। १२१ ॥ पुरका वह प्राकार सवा छह (६३) योजन अवगाहसे सहित, उतना (६३) ही विस्तृत और एक सौ पचास (१५०) योजन ऊंचा है ॥१२२।। प्राकारकी पूर्व दिशामें एक सौ साठ (१६०) गोपुरद्वार हैं। उनका विस्तार सत्तर (७०) योजन और ऊंचाई एक सौ साठ (१६०) योजन मात्र है । इतने (१६०) गोपुरद्वार सब दिशाओंमें जानना चाहिये ॥ १२३ ।। उस पुरमें अस्सी (८०) योजन विस्तृत, इससे आधा (४० यो.) पृथिवी में प्रविष्ट और चार सौ (४००) योजन ऊंचा रमणीय प्रासाद है, जहां लान्तव इन्द्र रहता है ।। १२४ ।। लान्तवेन्द्रकी देवियोंके प्रासाद सत्तर (७०) योजन विस्तृत, इससे आधे (३५ यो.) पृथिवीमें प्रविष्ट और साढ़े तीन सौ (३५०) योजन ऊंचे कहे गये हैं ॥१२५॥ साढ़े सोलह हजार (१६५००) स्त्रियोंसे वेष्टित उस इन्द्रके आठ अग्रदेवियां और पद्मा नामकी वल्लभा देवी है ॥ १२६ ॥ लान्तव इन्द्रककी उत्तर दिशामें स्थित बारहवें श्रेणीबद्ध विमानमें कापिष्ठ इन्द्र रहता है जो कि लान्तव इन्द्र के समान माना गया है । उसकी वल्लभा देवी पद्मोत्पला नामसे प्रसिद्ध है ।। १२७ ।। लान्तव इन्द्रकके ऊपर शुक्र इन्द्र क है । उसके दक्षिणमें दसवें श्रेणीबद्ध में शुक्र इन्द्रका उत्तम पुर है जो चालीस हजार (४००००) योजन विस्तृत है ।। १२८ ।। उसके सब ओर चार (४) योजन पृथिवीमें प्रविष्ट, उतना (४ यो.) ही विस्तृत और एक सौ बीस (१२०) योजन १५ मतः प्रियं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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