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________________ -१०.१२०] देशमौ विभागः [१८७ उत्तरस्यां पुनश्चक्रात्' षोडशावलिकास्थितम् । माहेन्द्रनगरं रुन्द्रं सहस्राणां च सप्ततिः ॥१११ ।७००००। अष्टावग्रमहिष्यश्च देवी कनकमण्डिता । वल्लभा तस्य विख्याता तासां वेश्मानि पूर्ववत् ॥११२ चक्राद् ब्रह्मोत्तरं चोर्ध्वं पञ्चमं दक्षिणे ततः । पुरं चतुर्दशे षष्टि सहस्राणां च विस्तृतम् ॥११३ ।६००००। सार्धानि द्वादशागाढस्तावदेव च विस्तृतः । प्राकारो द्विशतोच्छायो ब्रह्मणः पुरबाहिरः ॥११४ गोपुराणां शते द्वे च एकैकस्यां पुनदिशि । अशीति विस्तृत वेद्यं शुद्धं द्विशतमुच्छ्रितम् ॥११५ । २००। २०० (?)। ८०। २००। प्रासादो नवति रुन्द्रस्तदर्ध च क्षितौ गतः । ब्रह्मेन्द्रस्य शुभो दिव्य उच्चः सार्धचतुःशतम् ॥११६ ।९०। ४५ । ४५०।। अशीतिरुन्द्रा देवीनां तदर्धं च क्षिति गताः । चतुःशतोच्छयाश्चैव अष्टानामिति वणिताः ॥११७ ।८०। ४०। ४००। चतुस्त्रिशत्सहस्राणि देव्यस्तं सतताश्रिताः। नीला वल्लभिका नाम्ना प्रासादोऽस्याश्च पूर्वतः॥११८ ।३४०००। उत्तरस्यां पुनः पङक्तौ इन्द्रो ब्रह्मोत्तरस्तथा। नीलोत्पलेति नाम्ना च तस्य वल्लभिकामरी॥११९ ब्रह्मोत्तरात्तृतीयं तु नाम्ना लान्तवमिन्द्रकम् । दक्षिणस्यां ततः पङक्तौ द्वादशे लान्तवं पुरम्॥१२० उक्त चक्र इन्द्रककी उत्तर दिशामें स्थित सोलहवें श्रेणीबद्ध विमानमें माहेन्द्र इन्द्रका नगर स्थित है। उसका विस्तार सत्तर हजार (७००००) योजन है ॥ १११॥ उसके आठ अग्रदेवियां और कनकमण्डिता नामकी प्रसिद्ध वल्लभा देवी है। उनके प्रासाद सनत्कुमार इन्द्रकी देवियोंके प्रासादोंके समान हैं ।। ११२ ॥ __ चक्र इन्द्रकके ऊपर उसको लेकर पांचवां ब्रह्मोत्तर नामका इन्द्रक है। उसके दक्षिणमें चौदहवें श्रेणीबद्ध विमानमें ब्रह्मेन्द्रका पुर है। उसका विस्तार साठ हजार (६००००) योजन है। इस पुरके बाहिर साढ़े बारह (२३५) योजन अवागाहसे सहित, उतना ही (२५)विस्तृत और दो सौ (२००) योजन ऊंचा प्राकार है ।। ११३-११४ ।। इस प्राकारकी प्रत्येक दिशामें दो सौ (२००) गोपुरद्वार हैं । गोपुरद्वारोंका विस्तार अस्सी (८०) योजन [इतना (८० यो.) ही अवगाह ] और ऊंचाई शुद्ध दो सौ योजन प्रमाण जाननी चाहिये ॥ ११५ ।। ब्रह्मेन्द्रका दिव्य उत्तम प्रासाद नब्बे (९०) योजन विस्तृत, इससे आधा (४५)पृथिवीमें प्रविष्ट और चार सौ पचास (४५०) योजन ऊंचा है ।। ११६ ।। ब्रह्मेन्द्रको आठ अग्रदेवियोंके प्रासाद अस्सी (८०) योजन विस्तृत, इससे आधे (४० यो.)पृथिवीमें प्रविष्ट और चार सौ (४००) योजन ऊंचे कहे गये हैं ।। ११७ ॥ चौंतीस हजार (३४०००) देवियां निरन्तर उसके आश्रित रहती हैं। उसकी वल्लभा देवीका नाम नीला है। इसका प्रासाद इन्द्रप्रासादके पूर्व में स्थित है ।। ११८ ॥ ब्रह्मोत्तर इन्द्रककी उत्तरदिशागत पंक्तिके चौदहवें श्रेणीबद्ध विमानमें ब्रह्मोत्तर इन्द्र रहता है। उसकी वल्लभा देवीका नाम नीलोत्पला है ॥ ११९ ।। ब्रह्मोत्तर इन्द्रकको लेकर जो तीसरा लान्तव नामका इन्द्रक है उसकी दक्षिण दिशागत १ आ प पुनः शक्रात् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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