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________________ १८६] मेकविभामः [१०.१०३सौधर्मस्येव मानेन प्रासादो नगरं तथा । अशीतिः स्यात् सहस्राणि हेममालास्य वल्लभा॥१०३ 1८००००। ऊर्व प्रमायाश्चक्राख्यमष्टमं चेन्द्रकं ततः । सनत्कुमार इन्द्रश्च दक्षिणे षोडशे स्थितः ॥१०४ योजनानि त्वसंख्यानि दक्षिणां व्यतिपत्य च । द्विसप्ततिसहस्राणि विस्तृत प्रवरं पुरम् ॥१०५ ।७२०००। पञ्चवर्गावगाढश्च सालस्तावच्च विस्तृतः । सौवर्णः सर्वतस्तस्य प्रांशुः सार्धशतद्वयम् ॥१०६ ।२५ । [२५] । २५०। त्रिशतं गोपुराणां च प्रत्येकं द्विक्चतुष्टये । विस्तारो नवतिस्तेषामुच्छयश्च शतत्रयम् ॥१०७ ।३००। ९० । ३००। शतार्धमवगाढो गां शतमेव च विस्तृतः । 'प्रासादोऽधसहस्रोच्च इन्द्रानन्दकरः शुभः ॥१०८ ।५० । १०० । ५००। द्विसप्तत्या सहस्राणां देवीभिनित्यसेवितः । अष्टावग्रमहिष्यस्तु वल्लभा कनकप्रभा॥१०९ ।७२०००। नवतिविस्तृतास्तासां तदर्धं च गताः क्षितौ। प्रासादाः परितस्तस्मादुच्चा: सार्धचतुःशतम् ॥११० ।९०। ४५ । ४५०। ईशान इन्द्र रहता है !। १०२॥ उसका प्रासाद प्रमाण में सौधर्म इन्द्रके समान है । उसके नगरका विस्तार अस्सी हजार (८००००) योजन तथा वल्लभा देवीका नाम हेममाला है ।। १०३ ।। प्रभा नामक इन्द्रकके ऊपर चक्र नामका आठवां (प्रभाके साथ) इन्द्रक है। उसके दक्षिणमें स्थित सोलहवें श्रेणीबद्ध विमानमें सनत्कुमार इन्द्र स्थित है ॥ १०४ ।। दक्षिणमें असंख्यात योजन जाकर उसका बहत्तर हजार (७२०००) योजन विस्तृत श्रेष्ठ नगर है ।। १०५ ।। इस नगरका सुवर्णमय प्राकार पच्चीस (२५) योजन नीवसे सहित, उतना (२५ यो.) ही विस्तृत और अढाई सौ (२५०) योजन सब ओर ऊंचा है ।। १०६ ॥ उसकी चारों दिशाओं मेंसे प्रत्येक दिशामें तीन सौ (३००) गोपुरद्वार हैं । उनका विस्तार नब्बै (९०)योजन और ऊंचाई तीन सौ (३००) योजन मात्र है।। १०७ ।। वहां इन्द्रको आनन्दित करनेवाला जो उत्तम प्रासाद स्थित है वह पृथिवीमें पचास (५०) योजन प्रमाण अवगाहसे सहित, सौ (१००) योजन विस्तृत और पांच सौ (५००) योजन ऊंचा है ।। १०८ ।। उक्त सनत्कुमार इन्द्रको बहत्तर हजार (७२०००) देवियां सदा सेवा करती हैं। उनमें आठ अग्रदेवियां हैं । उसकी वल्लभा देवीका नाम कनकप्रभा है ।। १०९ ॥ उन देवियोंके प्रासाद नब्बै (९०) योजन विस्तृत, इससे आधे (४५ यो.) पृथिवीमें प्रविष्ट और साढ़े चार सौ (४५०) योजन ऊंचे हैं । ये प्रासाद उस इन्द्रप्रासादके चारों ओर हैं ।। ११० ॥ १ प प्रासादोर्ध्व । २ आ प च गगताः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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