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-१०.८३] दशमो विभागः
[ १८३ तावदेव कमाडोना बाहल्येन परस्परात् । एकत्रिशं शतं गन्द्राः परस्मिन् पटलद्धये ॥७५
।९२३ । ८२४ । ७२५। ६२६ । ५२७ । ४२८। ३२९ । २३० । १३१ । प्रासादा षट्छतोच्छाया योजनः पूर्वकल्पयोः । ततः पञ्चशतोच्छायाः परयोः कल्पयोर्द्वयोः ॥७६
।६००। ५००। बह्मे च लान्तवे शुके शतारे चानतादिषु । आधे मध्ये तथोद्रं च शता?ना: परस्परात् ॥७७
।४५०। ४०० । ३५० । ३०० । २५० । २०० । १५० । १००। प्रासादा ह्यनुविक्षवत्र दृष्टाः पञ्चाशदुच्छ्याः । अनुत्तरेषु विज्ञेयाः पञ्चविंशतिमुच्छ्रिताः ॥७८
।५० । २५। आधयोः पञ्चवर्णास्ते कृष्णवाः परद्वये । परयोर्नीलवाश्च ब्रह्मलान्तवयोरपि ॥७९ रक्तवाश्च शुक्राख्ये सहस्रारे च भाषिताः। परतः पाण्डरा एव विमाना शङखसंनिभाः॥८० प्रजन्ति तापसोत्कृष्टा आ ज्योतिषविमानतः । चरकाः सपरिव्राजा गच्छन्त्या ब्रह्मलोकतः॥८१
अकामनिर्जरातप्तास्तिर्यपञ्चेन्द्रियाः पुनः । अन्यपाषण्डिनश्चापि आ सहस्त्रारतोऽधिकाः ॥८२ प्राऽच्युताच्छामका यान्ति उत्कृष्टाऽऽजीवका अपि । स्त्रियः सम्यक्त्वयुक्ताश्च सच्चारित्रविभूषिताः॥
(९९) से ही उत्तरोत्तर हीन है । आगेके दो पटलोंमें वह बाहल्य एक सौ इकतीस योजन मात्र है ।। ७४-७५ ।।
जैसे- ब्रह्म ९२३, लान्तव ८२४, शुक्र ७२५, शतारयुगल ६२६, आनतादि चार ५२७, अधो ग्रे. ४२८, मध्यम ]. ३२९, उपरिम . २३०, अनुदिश व अनुत्तर १३१ यो.।
पूर्व दो कल्पोंमें स्थित प्रासाद छह सौ योजन और आगे दो कल्पोंमें पांच सौ योजन ऊंचे हैं- सौ. ऐ. ६०० यो., स. मा. ५०० यो. ।। ७६ ॥ ये प्रासाद ब्रह्म, लान्तव, शुक्र, शतार, आनतादि चार, अधो ग्रैवेयक, मध्यम ग्रैवेयक और उपरिम ग्रेवेयकमें उत्तरोत्तर पचास योजनसे हीन हैं। यथा- ब्रह्म ४५०, लान्तक ४००, शुक्र ३५०, शतार ३००, आनतादि २५०, अ. ग्रे. २००, म. प्र. १५०, उ. १. १०० यो. ॥ ७७॥ यहां अनुदिशोंमें स्थित वे प्रासाद पचास (५०) योजन और अनुत्तरोंमें पच्चीस (२५) योजन मात्र ऊंचे जानने चहिये ।।७८॥
प्रथम दो कल्पोंमें स्थित विमान पांचों वर्णवाले, आगेके दो कल्पोंमें कृष्ण वर्णको छोड़कर चार वर्णवाले, उसके आगे ब्रह्म और लान्तव इन दो कल्पोंमें कृष्ण और नील वर्णसे रहित तीन वर्णवाले, शुक्र और सहस्रार कल्पोंमें लालको भी छोड़कर दो वर्णवाले तथा इसके आगे सब विमान शंखके सदृश धवल वर्णवाले ही हैं ।। ७९-८०॥
उत्कृष्ट तापस ज्योतिष विमानों तक जाते हैं, अर्थात् वे भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें उत्पन्न होते हैं। नग्न अण्डलक्षण चरक और परिव्राजक (एकदण्डी व त्रिदण्डी आदि) ब्रह्मलोक तक जाते हैं ।। ८१ ।। अकामनिर्जरासे सन्तप्त पंचेन्द्रिय तिथंच तथा दूसरे पाखण्डी तपस्वी भी अधिकसे अधिक सहस्रार कल्प तक जाते हैं ।। ८२ ॥ श्रावक, उत्कृष्ट आजीवक (कंजिकादिभोजी) तथा सम्यग्दर्शनसे संयुक्त व चारित्रसे विभूषित स्त्रियां अच्युत
१ मा विशतिरुच्छ्रिताः । २ मा प आकाम । ३ ५ पाखण्डिन ।
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