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________________ १२] लोकविभागः [१०.६५सप्तामा मध्यमेऽशोतिरेकपञ्चाशदुत्तरे। अनुविक्षु नबंव स्युः पञ्चवानुत्तरेषु च ॥६७ ।८७। ५१।९।५। ऋतु क्षेत्रविस्तारश्चरमो जम्बूसमस्तयोः । विशेष रूपहीनेन्द्र काप्ते हानिवृद्धिके ॥६८ । ४५०००००।१०००००। हानिवृद्धि ७०९६७।१३। एकत्रिशद्विमानानि श्रेणीषु चतसृष्वपि । स्वयम्भूजलधेल्ध्वं शेषा द्वीपाम्बुधित्रये ॥६९ ।३१। १६ । ८।४।२।१।१।। चन्द्रे विमलवलयोश्च श्रेण्यर्धा तथा परे । चूलिकां वालमात्रेण ऋतुर्न प्राप्य तिष्ठति ॥७० जलप्रतिष्ठिता आयोः परयोतिप्रतिष्ठिताः । आ सहस्त्रारतो ब्रह्माज्जलवातप्रतिष्ठिताः ॥७१ आनतादिविमानाश्च शुद्धाकाशे प्रतिष्ठिताः । अयं प्रतिष्ठानियमः सिद्धो लोकानुभावतः ॥७२ एकविंशशतं चैकं सहस्रं च धनो द्वयोः । एकोनशतहीनं च बहला परयोर्द्वयोः ॥७३ ।११२१ । १०२२। ब्रह्मे च लान्तवे शुक्र शतारयुगलेऽपि च । आनतादिचतुष्के च अधस्तान्मध्यमे परे ॥७४ (श्रेणीबद्ध) विमान जानना चाहिये ॥६६॥ मध्यम अवेयकमें सतासी (८७), उपरिम ग्रेवेयकमें इक्यावन (५१), अनुदिशोंमें नौ (९) तथा अनुत्तरोंमें पांच (५) ही श्रेणीबद्ध विमान हैं ।। ६७ ॥ . ऋतु इन्द्रकका विस्तार मनुष्यक्षेत्रके बराबर पैंतालीस लाख तथा अन्तिम सर्वार्थसिद्धि इन्द्रकका विस्तार जम्बूद्वीपके प्रमाण एक लाख योजन है। उन दोनोंको परस्पर घटाकर शेषमें एक कम इन्द्रकप्रमाणका भाग देनेपर हानि-वृद्धिका प्रमाण प्राप्त होता है । ६८ ॥ यथा४५०००-१००००°=७०९६७३३ यो.हा. वृ.।। चारों ही श्रेणियोंमें स्थित तिरेसठ तिरेसठ श्रेणीबद्ध विमानों में इकतीस विमान स्वयम्भूरमण समुद्रके ऊपर तथा शेष बत्तीस विमान तीन द्वीपों और तीन समुद्रों में (स्वयम्भूरमण द्वीपमें १६, अहीन्द्रवर समुद्र में ८, अहीन्द्रवर द्वीपमें ४, देववर समुद्र में २, देववर द्वीपमें १ और यक्षवर समुद्र में १ = ३२ स्थित हैं ।। ६९ ॥ विमल, चन्द्र और वल्गु इद्रक विमानोंके आधे आधे श्रेणीबद्ध विमान अनन्तर द्वीपों व समुद्रोंमें स्थित हैं ( ? ) । ऋतु विमान मेरु पर्वतकी चूलिकाको बाल मात्रसे न पाकर (बाल प्रमाण अन्तरसे) स्थित है ।। ७० ।। प्रथम दो कल्पोंके विमान जलके ऊपर स्थित हैं, आगेके दो कल्पोंके विमान वायुके ऊपर स्थित हैं, तथा ब्रह्म कल्पसे लेकर सहर र कल्प तक आठ कल्पोंके विमान जल-वायुके ऊपर स्थित हैं । आनत आदि कल्पोंके विमान तथा कल्पातीत विमान शुद्ध आकाश में स्थित हैं। यह विमानोंके अवस्थानका क्रम लोकानुयोगसे सिद्ध है ।। ७१-७२ ।। विमानतलका बाहल्य सौधर्म और ऐशान इन दो कल्पोंमें एक हजार एक सौ इक्कीस (११२१), तथा आगेके दो कल्पोंमें वह विमानतलबाहल्य निन्यानबै योजनसे हीन (११२१ -१९=१०२२) है ।। ७३ ।। ब्रह्म, लान्तव, शुक्र, शतारयुगल, आनत आदि चार, अधो प्रैवेयक, मध्यम प्रैवेयक और उपरिम अवेयकमें वह विमानतलबाहल्य परस्पर क्रमशः उतने १ आ प ब्रह्मज्वल : २ आ प एकविंशतं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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