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१८४] लोकविभागः
[१०.८४निर्ग्रन्थाः शुद्धचारित्रा ज्ञानसम्यक्त्वभूषणाः। 'जातरूपधराः शूरा गच्छन्ति च सतः परम् ॥८४ आ प्रैवेयाद् वजन्तीति मिथ्यादर्शनिनो मताः । ऊर्ध्वं सद्दर्शनास्तेभ्यः संयमस्था नरोत्तमाः ॥८५ निर्ग्रन्था निरहंकारा विमुक्तमदमत्सराः । निर्मोहा निर्विकाराश्च ज्ञानध्यानपरायणाः ॥८६ हत्वा कर्मरिपून धीराः शुक्लध्यानासिधारया। मोक्षमक्षयसौख्याढचं व्रजन्ति पुरुषोत्तमाः॥८७ पञ्च कल्पान् विहायाद्यान् कृत्स्नपूर्वधरोद्भवः । दशपूर्वधराः कल्पान् वजन्त्यूवं च संयता: ॥८८ पञ्चेन्द्रियतिरश्चोऽपि आ सहस्रारतः सुराः । स्थावरानपि चशानात् परतो यान्ति मानुषान् ॥८९ सौधर्माद्यास्तु चत्वारः अष्टौ ब्रह्मादयोऽपि च । प्राणतश्चाच्युतश्चेति चिह्नवन्तश्चतुर्दश ॥९० वराहो मुकुटे चिह्न मृगो महिषमीनवत् । कूर्मदर्दुरसप्तीभाश्चन्द्रः सर्पोऽथ खड्गकः ॥९१ छागलो वृषभश्चैव विटपीन्द्रस्तथाच्युतात् । क्रमेण चिह्नानोन्द्राणां प्रोक्तान्येवं चतुर्दश ॥९२ इन्द्रकात्तु प्रभासंज्ञाद् दक्षिणावलिकास्थितम् । अष्टादशविमानं तत् सौधर्मो यत्र देवराट् ॥९३
कल्प तक जाती हैं ॥ ८३ ।। निर्मल चारित्रसे संयुक्त, सम्यग्ज्ञान व सम्यग्दर्शनसे विभूषित तथा दिगम्बर रूपको धारण करनेवाले ऐसे शूर वीर निर्ग्रन्थ साधु अच्युत कल्पसे आगे अर्थात् कल्पातीत विमानों में जाते हैं ।। ८४।। मिथ्यादृष्टि (द्रव्यलिंगी मुनि ) मरकर अवेयक पर्यन्त तथा मनुष्यों में श्रेष्ठ सम्यग्दृष्टि संयमी मुनि उससे आगे अनुदिश व अनुत्तर विमानोंमें जाते हैं ।। ८५॥ मनुष्यों में श्रेष्ठ जो धीर वीर साधु अहंकार, मद, मात्सर्य, मोह एवं क्रोधादि विकारोंसे रहित होकर ज्ञान और ध्यानमें तप्पर होते हैं वे महात्मा शुक्लध्यानरूप तलवारकी धारसे कर्मरूप शत्रुओंको नष्ट करके अविनश्वर सुखसे संपन्न मोक्षको प्राप्त करते हैं ।। ८६-८७ ॥ समस्त (चौदह) पूर्वोके धारक प्रथम पांच कल्पोंको छोड़कर आगेके देवों में उत्पन्न होते हैं। दस पूर्वोके धारक कल्पोंमें और संयत उसके आगे जाते हैं ।। ८८॥
सहस्रार कल्प तकके देव पंचेन्द्रिय तिर्यच तक होते हैं। ऐशान कल्प तकके देव स्थावर भी होते हैं। किन्तु आगेके देव मनुष्य ही होते हैं ।। ८९ ।।।
विशेषार्थ- अभिप्राय यह है कि भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और सौधर्म-ऐशान कल्पोंके देव वहांसे च्युत होकर परिणामोंके अनुसार एकेन्द्रियों (पृथिवीकायिक, जलकायिक और प्रत्येक वनस्पति), कर्मभूमिज पंचेन्द्रिय तिर्यों और मनुष्योंमें भी उत्पन्न हो सकते हैं। इससे आगे सहस्रार कल्प तकके देव मरकरके पंचेन्द्रिय तियंचों और मनुष्योंमें उत्पन्न होते हैं। इससे ऊपरके देव केवल मनुष्योंमें ही उत्पन्न होते हैं।
___ सौधर्म आदि चार, ब्रह्म आदि आठ, प्राणत और अच्युत इन कल्पोंमें इन्द्रोंके मुकुटमें क्रमसे ये चौदह चिह्न होते हैं- वराह, मृग, भैंस, मछली, कछवा, मेंढक, घोड़ा, हाथी, चन्द्र, सर्प, खड्ग, छागल (बकरी), बल और विटपीन्द्र (कल्पवृक्ष) । इस प्रकार अच्युत कल्प तक ये क्रमसे इन्द्रोंके चौदह चिह्न कहे गये हैं ।। ९०-९२ ।।
प्रभ नामक इन्द्रकसे दक्षिण श्रेणीमें स्थित जो अठारहवां श्रेणीबद्ध विमान है उसमें
१ व ज्ञात' । २ [मृताः।। ३ प चिन्हवन्त्यचतु । ४ आ प वटपीन्द्र । ५ आ प संज्ञादक्षिणा ।
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