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________________ -१०.५३] दशमो विभाग: [ १७९ 1 अनुत्तरेषु पञ्चैव विमानगणना इमे । इत ऊर्ध्वं प्रवक्ष्यामि तेषां संख्येयकादिकम् ॥४५ अfare मालिनी चैव वैरं वैरोचनाख्यकम् । सोमं सोमप्रभं चाङ्कं स्फटिकादित्यनामकम् ॥४६ अचिवरोचनाख्यं च अचिमालिन्यपि क्रमात् । प्रभासापि च पूर्वाद्या आदित्यस्य चतुविशम् ॥ ४७ विजयं वैजयन्तं च जयन्तमपराजितम् । सर्वार्थसिद्धिसंज्ञस्य विमानस्य चतुविशम् ॥४८ चतुःशून्याब्धिषट्कं ' च आद्ये संख्येयविस्तृता: । विमानाश्च परे शून्यचतुष्कं शून्यषट्ककम् ॥४९ । ६४०००० । ५६०००० । चत्वारिंशत्सहस्राणि तृतीये नियुतद्वयम् । षष्टिश्चैव सहस्राणि माहेन्द्रे नियुतं तथा ॥५० । २४०००० । १६०००० । संख्येयविस्तृता ब्रह्मयुग्मेऽशीतिसहस्रकम् । दशैव च सहस्राणि विज्ञेया लान्तवद्वये ॥५१ | ८००० । १००००। शुद्वये सहस्राणि अष्टौ संख्येयविस्तृताः । द्वादशैव शतानि स्युः शतारद्वितये पुनः ।। ५२ १८०००० । १२०० । चत्वारिंशं शतं विद्यादानतादिचतुष्टये । चतुर्गुणास्तु संख्येयाः सर्वत्रासंख्यविस्तृताः ॥ ५३ असंख्य विस्तृतविमानाः । सौ २५६०००० । ऐ २२४०००० । स ९६०००० । मा ६४०००० । ब्रह्मयुग्मे ३२०००० । लान्तवद्वये ४०००० । शुक्रद्वये ३२००० । शतारद्वितये ४८०० । आनतादिचतुष्के ५६० । अनुत्तरों में पांच ( ५ ) ही हैं। इस प्रकार यहां तक यह विमानोंकी संख्या निर्दिष्ट की गई है । इसके आगे उन विमानोंका संख्येय विस्तार आदि कहा जाता है ।। ४४-४५ ।। अर्ची, मालिनी ( अर्चिमालिनी), वैर, वैरोचन, सोम, सोमप्रभ, अंक, स्फटिक और आदित्य ये नौ अनुदिश विमान हैं || ४६ ॥ इनमें अर्ची, वंरोचन, अर्चिमालिनी और प्रभासा ( वैर ) ये चार श्रेणीबद्ध विमान आदित्य इन्द्रककी पूर्वादिक चार दिशाओं में स्थित हैं ।। ४७ ।। विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित ये चार विमान सर्वार्थसिद्धि नामक इन्द्रक विमानकी चारों दिशाओं में स्थित हैं ॥ ४८ ॥ संख्यात योजन विस्तारवाले विमान प्रथम कल्पमें चार शून्य, समुद्र अर्थात् चार और छह ( ६४०००० ) इतने अर्थात् छह लाख चालीस हजार तथा आगेके ऐशान कल्पमें चार शून्य, छह और [ पांच] ( ५६०००० ) इतने अंकों प्रमाण अर्थात् पांच लाख साठ हजार हैं ।। ४९ ।। उक्त संख्यात योजन विस्तारवाले विमान तीसरे कल्पमें दो लाख चालीस हजार ( २४०००० ) तथा माहेन्द्र कल्प में एक लाख साठ हजार ( १६०००० ) हैं ।। ५० ।। संख्यात योजन विस्तारवाले विमान ब्रह्मयुगलमें अस्सी हजार ( ८०००० ) तथा लान्तवयुगलमें दस हजार ( १०००० ) ही जानने चाहिये ।। ५१ ।। संख्यात विस्तारवाले विमान शुक्रयुगलमें आठ हजार ( ८००० ) तथा शतारयुगल में बारह सौ ( १२०० ) ही हैं ।। ५२ ।। वे विमान आनत आदि चार कल्लों में एक सौ चालीस ( १४० ) जानना चाहिये । उपर्युक्त सब कल्पोंमें असंख्यात योजन विस्तारवाले विमान इन संख्यात विस्तारवाले विमानोंसे चौगुने जानने चाहियेंसौधर्म २५६००००, ऐशान २२४००००, सनत्कुमार २६००००, माहेन्द्र ६४००००, ब्रह्मयुगल ३२००००, लान्तवयुगल ४००००, शुक्रयुगल ३२०००, शतारयुगल ४८००, आनतादि चार १ व शूम्यादि । २ आ प विस्तृता । ३ ['चतुष्कं षट्क पंचकम् ] । ४ आ प षष्ठिश्चैव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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