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________________ १५८] लोकविभागः (१०.३१वोडमा पाल्पांच विविच्छन्ति तन्मते । तस्मितस्बिन विमानानां परिणामराम्यहम् ॥ असनियुतान्याये विमानगणना भवेत् । अष्टाविंशतिरंशाने तृतीये द्वादशापि च ॥३७ ।३२०००००। २८००००० । १२०००००। माहेन्द्र नियुतान्यष्टौ पणवत्यधिक द्वयम् । ब्रह्मे ब्रह्मोत्तरे चापि चतुष्कं स्यातदूनकम् ॥३८ ।८०००००।२०००९६ । १९९९०४।। द्विचत्वारिंशदग्रं च पञ्चविंशतिसहस्रकम् । लान्तवे तैः सहस्राणि पञ्चाशत्तु विना परे ॥३९ ।२५०४२ । २४९५८। विशतिः स्युः सहस्राणि शुक्र शुद्धा च विंशतिः । चत्वारिंशत्सहस्राणि महाशुक्र तु तेविना ॥४० ।२००२०। १९९८० । शतारे त्रिसहस्र स्यादेकोनापि च विंशतिः । एकाशीतिः सहस्रारे शतानां त्रिशदेकहा ॥४१ ।३०१९ । १९८१ [ २९८१] । चत्वारिंशानि चत्वारि शतान्यानतयुग्मके । द्वे शते षष्टिसंयुक्ते आरणाच्युतयुग्मके ॥४२ ।४४० । २६०।। चतुःशतानि शुद्धानि जानतप्राणतविके । आरणाच्युतयुग्मे च त्रिशतान्यपरे विदुः ॥४३ ।४००।३००। एकादशं शतं चाये शतं सप्त च मध्यमे । एकाग्रनवतिश्चोयें अनुदिक्षु मध च ॥४४ ।१११। १.७१९ (?)। ९१।९। __ जी कितने ही आचार्य सोलह कल्पोंको स्वीकार करते हैं उनके मतानुसार मैं उस उस कल्पमें (प्रत्येक कल्पमें) विमानोंके प्रमाणको कहता हूं ॥ ३६ ।। उक्त विमानोंकी संख्या प्रथम कल्पमें बत्तीस लाख (३२०००००), ऐशान कल्पमें अट्ठाईस लाख (२८०००००), तृतीय सनत्कुमार कल्पमें बारह लाख (१२०००००), माहेन्द्र कल्पमें आठ लाख (८०००००), ब्रह्म कल्पमें छयानबसे अधिक दो लाख (२०००९६), ब्रह्मोत्तर कल्पमें उससे (२०००९६) हीन चार लाख (४०००००-२०००९६=१९९९०४), लान्तव कल्पमें ब्यालीस अधिक पच्चीस हजार (२५०४२), आगेके कापिष्ठ कल्पमें इनके विना पचास हजार अर्थात् चौबीस हजार नौ सो अट्ठावन (५००००-२५०४२=२४९५८), शुक्र कल्पमें बीस हजार बीस (२००२०), महाशुक्रमें उनके विना चालीस हजार अर्थात् उन्नीस हजार नौ सौ अस्सी (४००००-२००२० =१९९८०), शतारमें तीन हजार उन्नीस (३०१९), सहस्रारमें एक कम तीस सौ इक्यासी, (२९८१), आनतयुगलमें चार सौ चालीस (४४०), और आरण-अच्युत युगलमें दो सौ साठ (२६०) हैं ॥ ३७-४२ ।। मतान्तर आनत और प्राणत इन दो कल्पोंमें शुद्ध चार सौ (४००) तथा आरण-अच्युत युगलमें शुद्ध तीन सौ (३००) विमान हैं, ऐसा दूसरे आचार्य कहते हैं ।। ४३ ॥ उक्त विमानोंकी संख्या प्रथम अवेयकमें एक सौ ग्यारह ( १११ ), मध्यम अवेयकमें एक सौ सात ( १०७), उपरिम ग्रंवेयकमें इक्यानबै ( ९१), अनुदिशोंमें नौ ही (९) तथा १व द्वात्रिंशा । २ आ प 'युतानाद्य । ३ आ प षष्ठि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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