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लोकविभागः
पञ्चमं लघु सर्वत्र सप्तमं द्वि-चतुर्थयोः । गुरु षष्ठं तु पादानां शेषेष्वनियमो मतः ।।
इस लक्षणके अनुसार उसके प्रत्येक चरणमें पांचवां अक्षर लघु और छठा दीर्घ होना चाहिये । सातवां अक्षर द्वितीय और चतुर्थ चरणमें ह्रस्व हुआ करता है । प्रस्तुत ग्रन्थ में कहीं कहीं इस नियम की अवहेलना देखी जाती है । यथा - अशीतिरेवेशानस्य ( १० - १५० ), यहां पांचवां अक्षर दीर्घ तथा पुष्करार्धाद्यवलये' (६-३६), यहां षष्ठ अक्षर दीर्घ न होकर ह्रस्व है ।
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किसी किसी श्लोकके चरणमें यहां ७ ही अक्षर पाये जाते हैं । जैसे - श्लोक ४-१९ के चतुर्थ चरण में २ | इसी प्रकार किसी किसी चरणमें ९ भी अक्षर पाये जाते हैं। जैसे- श्लोक १- ३३४ के प्रथम चरणमें ३ ।
श्लोक में प्रथम चरण के अपूर्ण पदकी पूर्ति द्वितीय चरणमें तो देखी जाती है, परन्तु द्वितीय चरणके अपूर्ण पदकी पूर्ति तृतीय चरण में नहीं देखी जाती । प्रस्तुत ग्रन्थ में कहीं कहीं इसका अपवाद देखा जाता है । जैसेमानुषीत शैलाश्च द्वीपसागर वेदिका मूलतो नियुतार्धेन ततो लक्षण मण्डलम् ॥ ६-३५. यहां 'वेदिकामूलतः ' पद अपेक्षित है जो द्वितीय चरण में अपूर्ण रहकर तृतीय चरण में पूर्ण हुआ है । यह क्रम ५ - २०, ६- १२३ (ब), ६-१८०, ७-४३, ७-४८ और १०-२५८ आदि अन्य श्लोकों में भी देखा जाता है ।
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भाषा - प्रस्तुत ग्रन्थका बहुभाग जैसा कि आप आगे देखेंगे - तिलोयपण्णत्ती, हरिवंशपुराण, आदिपुराण और त्रिलोकसार आदि अन्य ग्रन्थोंके आश्रयसे रचा गया प्रतीत होता है । इसमें ग्रन्थकार सिंहसूरधिकी जितनी स्वतः की रचना है उसकी भाषा शिथिल, दुरवबोध और कहीं कहीं शब्दशास्त्रगत नियमोंके भी विरुद्ध दिखती है । उदाहरणार्थ यह श्लोक देखिये षड्युग्मशेषकल्पेषु आदिमध्यान्तवर्तिनाम् । देवीनां परिषदां संख्या कथ्यते च यथाक्रमम् ॥ १०-१७९ यहां ग्रन्थकार इस लोकके द्वारा यह भाव प्रदर्शित करना चाहते हैं कि अब आगे पृथक् पृथक् सौधर्म - ऐशानादि छह युगलों और आनतादि शेष कल्पचतुष्क में क्रमसे आदिम,
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श्लोक भी देखे जा सकते हैं -
१. पांचवें अक्षर के दीर्घ होनेके उदाहरणस्वरूप निम्न अन्य १- ३५१, ४- १९, ४-२३, ५-३३, ५ - ९०, ७- ८३, ७-१२, ८- ७, ८ - ४६, ८- ७३, ९ – ७५, १०- २३, १०-९३ आदि । इसी प्रकार छठे अक्षरके ह्रस्व होनेके भी ये अन्य उदाहरण देखे जाते हैं - ५ - ९०, ६-१३१, ६ – १४८, ९-७५ आदि ।
२. इसके अतिरिक्त इन श्लोकोंके भी किसी किसी पादमें ७ ही अक्षर पाये जाते हैं - ४-२३, ५-३३, ७-६५, १०-६८ आदि ।
३. इसी प्रकार निम्न श्लोकों के भी किसी किसी पादमें ९ अक्षर देखे जाते हैं- ६-१०३, ६ - १३१, ६- १४८, ७-५०, ८- १७, ८-३२, ९-१८, ९-३३ आदि । श्री पण्डित आशाधरजीके
मतानुसार ९ अक्षर दोषकारक नहीं माने जाते । वे सा. ध. ७ - ८ श्लोककी टीकामें कहते हैं।
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अत्र च द्वितीयपादे नवाक्षरत्वं न दोषाय, अनुष्टुभि नवाक्षरस्यापि पादस्य शिष्टप्रयोगे क्वापि क्वापि दृश्यमानत्वात् । यथा -- ' ऋषभाद्या वर्धमानान्ता जिनेन्द्रा दश पञ्च च' इत्यादिषु । अथवा 'हरिताङ्कुरबी जालवणाद्यप्रासुकं त्यजन् ' इति पाठः ।
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