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________________ प्रस्तावना त एते लोकानुयोगोपदेशेन चतुर्दशेन्द्रा उक्ताः। इह द्वादश इष्यन्ते, पूर्वोक्तेन क्रमेण ब्रह्मोत्तर-कापिष्ठ-महाशुक्र-सहस्रारेन्द्रागां' दक्षिणेन्द्रानुवर्तित्वात् आनत-प्राणतयोश्च एकैकेन्द्रत्वात् । त. वा. ४, १९, ८. __ तत्त्वार्थवृत्तिके कर्ता श्री श्रुतसागर सूरि तत्त्वार्थवातिकके अनुसार १४ इन्द्रोंका वर्णन करते हुए उस मान्यतासे विशेष खिन्न दिखते हैं। वे कहते हैं -- कि क्रियते ? लोकानुयोगनाम्नि सिद्धान्त आनत-प्राणतेन्द्रौ नोक्तौ, तन्मतानुसारेण इन्द्राश्चतुर्दश भवन्ति । मया तु द्वादश उच्यन्ते। यस्मात् ब्रह्येन्द्रानुवर्ती ब्रह्मोत्तरेन्द्रः, लान्तवेन्द्रानुवर्ती कापिष्ठेन्द्रः, शुक्रेन्द्रानुवर्ती महाशुक्रेन्द्रः, शतारेन्द्रानुवर्ती सहस्रारेन्द्र: । सौधर्मेशान-सानत्कुमारमाहेन्द्रेषु चत्वारा इन्द्राः आनत-प्राणतारणाच्युतेषु चत्वार इन्द्राः । तेन कल्पवासीन्द्रा: द्वादश भवन्ति । त. वृ. ४-१९. ___ इस १२ और १६ कल्पविषयक प्रबल मतभेदके कारण वैमानिक देवोंकी प्ररूपणामें प्रायः कहीं भी एकरूपता नहीं रह सकी है। ८. प्रस्तुत ग्रन्थ में कुछ विशिष्ट शब्दोंका प्रयोग भी देखा जाता है । यथा- ‘रुक्मी' के लिये 'रुग्मी' (१-१२) २, युगल के लिये 'निगोद'३ (५-१६०), रात्रि-दिनकी समानताके लिये 'इषुप' (६-१५०, १५४, १६१-६३) और 'विषुव' (६-१५१, १५५-५७), शुचि व अशुचिके लिये 'चौक्ष' व ' अचौक्ष'५ (९-१२), सम्भवतः पीठ अथवा चैत्यवृक्षके लिये 'आयाग'६ (९-५७, ५८ तथा १०-२६२, २६६), कापिष्ठके लिये सर्वत्र ‘कापित्थ' (१०-६४, १२७, १७३, ३०४ आदि), करण्डकके लिये 'समुद्गक '७ तथा ह्रस्वके लिये दभ्र' (९-१४) आदि। ६. ग्रन्थका वृत्त और भाषा वृत्त-- सम्पूर्ण ग्रन्थ प्रायः अनुष्टुप् छन्दमें लिखा गया है। इस वृत्तके प्रत्येक चरणमें ८-८ अक्षर हुआ करते हैं। उसका लक्षण इस प्रकार देखा जाता है १ति.प. गा.८-१३३के अनुसार ब्रह्म, लान्तव, महाशुक्र और सहस्रार यै चार कल्प मध्यमें अवस्थित हैं । कल्पोंके नामानुसार इन्द्रोंके भी नाम ये ही हैं। २. आगे भी रुक्मी पर्वतके लिये यही शब्द प्रयुक्त हुआ है। ३. देखिये ति. प. ४, १५४७-४८ और त्रि. सा. ८६५. ४. ति. प. में इसके लिये 'विसुप' (७-५३७), विसुय (७-५३९, ५४०) और 'उसून' (७-५४१, ५४३ आदि) शब्दोंका तथा त्रि. सा. में 'इसुप' (४२१, ४२७, ४२९-३०) और 'विसूप' (४२६) शब्दोंका प्रयोग किया गया है। ५. ति.प. ६-४८ और त्रि. सा. २७१ में इनके स्थानमें 'चोक्खा' और 'अचोक्खा' पदोंका प्रयोग किया गया है। पा. स. म. के. अनुसार 'चोक्ख' शब्द देशी है। ६. यह या इसी प्रकारका अन्य कोई शब्द ति. प. और त्रि. सा. में दृष्टिगोचर नहीं होता। ७. ति.प. ८, ४००-४०२ तथा त्रि. सा. ५२०-२१ 'करंड शब्द ही प्रयुक्त हुआ है। अमरकोश (२,६,१३९) में इसका पर्याय शब्द 'संपुट' उपलब्ध होता है । ८. सूक्ष्म श्लक्ष्णं दधं कृशं तनुः ।। अ. को. ३, १, ६१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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