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________________ १८] लोकविभागः और त्रिलोकसार ( ३६२-७० ) में चन्द्रके परिवारभूत ८८ ग्रहोंकी संख्या व उनके पृथक् पृथक् नाम भी निर्दिष्ट किये गये हैं । प्रस्तुत लोकविभाग में एक चन्द्रके ग्रह कितने होते हैं, इस प्रकार उनकी किसी नियत संख्याका निर्देश नहीं किया है। यहां जो उनके कुछ नाम निर्दिष्ट किये गए हैं उनमें कुछ नाम भिन्न भी दिखते हैं । यद्यपि इस प्रकरणके अन्तमें उपसंहार करते हुए ८८ ग्रहों को ज्योतिष ग्रन्थसे देखनेका संकेत किया गया दिखता है, परन्तु इसके लिए 'अष्टाशीत्यस्तारकोरुग्रहाणां चारो वक्रं ' आदि जिन पदोंका प्रयोग किया गया है वे भाषाकी दृष्टि से कुछ असम्बद्ध से प्रतीत होते हैं । ५. छठे विभाग में १९७-२०० श्लोकोंमें रौद्र - श्वेतादि कितने ही नाम निर्दिष्ट किये हैं, परन्तु वहां क्रियापदका निर्देश न होनेसे ग्रन्थकारका अभिप्राय अवगत नहीं हुआ । अन्तमें वहां जो 'मुहूर्तोऽन्योऽरुणो मतः ' यह कहा गया है उससे वे मुहूर्तभेद प्रतीत होते हैं । इस प्रकारके नामों का उल्लेख तिलोयपण्णत्ती और त्रिलोकसारमें उपलब्ध नहीं होता । ६. नौवें विभाग में ७८-८५ श्लोकोंके द्वारा पिशाचादि व्यन्तर निकार्यो में १६ इन्द्रोंकी ३२ महत्तरियोंके नामों का उल्लेख किया गया है । इसमें नाम सब स्त्रीलिंग ही हैं, परन्तु उनका उल्लेख किया गया है महत्तर स्वरूपसे । यथा - गणिकानां महत्तराः । यहां 'महत्तराः ' यह पद न तो अशुद्ध प्रतीत होता है और न उनके स्थानमें 'महत्तर्यः' जैसे पदकी भी सम्भावना की जा सकती है। तिलोयपण्णत्ती (६-५० ) में 'गणिका महल्लियाओ दुवे दुवे रूववंतीओ' रूपसे महत्तरी स्वरूपमें ही उनका उल्लेख किया गया है। इसी प्रकार त्रिलोकसार ( २७५ ) में भी 'गणिकामहत्तरीयो के रूपमें उनका उल्लेख महत्तरीस्वरूपसे ही किया गया है । ७. दसवें विभाग में ९३ - १४९ श्लोकों में सौधर्मादिक १४ इन्द्रोंकी प्ररूपणा की गई है । उनमें आनत और प्राणत इन्द्रोंका उल्लेख नहीं पाया जाता है । यह १४ इन्द्रोंका अभिमत तिलोयपण्णत्ती में उपलब्ध नहीं होता । वहां ( ८- २१४ ) बारह कल्पों के आश्रयसे १२ इन्द्रोंका ही उल्लेख पाया जाता है । त्रिलोकसार (५५४) में १२ और जंबूदीवपण्णत्ती (५, ९२ - १०८) में १६ इन्द्र निर्दिष्ट किये गये हैं। हां, उपर्युक्त १४ इन्द्रों की मान्यता श्री भट्टाकलंक देवको अवश्य अभीष्ट है । वे अपने तत्त्वार्थवातिकमें कहते हैं - --- १. इसी ग्रन्थ में आगे सामानिक ( १५०-५२ ) और देवियोंकी (१६२ - ७८ ) संख्याप्ररूपणा में प्राणत और अच्युत इन्द्रोंका उल्लेख न करके सौधर्मादि १४ इन्द्रोंका निर्देश किया गया है । आत्मरक्ष देवोंकी संख्याप्ररूपणा में ( १५४ - ५७ ) १६ इन्द्रोंका उल्लेख पाया जाता है । २. यहांपर सामानिक ( २१९-२२), तनुरक्ष ( २२४-२७ ), पारिषद ( २२८-३३ ) और देवियोंकी संख्याप्ररूपणा में भी इसी क्रमसे १२ इन्द्रोंका ही उल्लेख पाया जाता है । सात अनीको सम्बन्धी प्रथम कक्षाकी संख्याप्ररूपणा (८, २३८-४६ ) में १० इन्द्रोंका ही उल्लेख पाया जाता है । सम्भव है प्रतिमें वहां लिपिकारके प्रमादसे आनत प्राणत इन्द्रोंकी निर्देशक गाथा छूट गई हो । इसी प्रकार आगे गाथा ३६३ का पाठ भी स्खलित हो गया प्रतीत होता है। इसके पूर्व ५ वें महाधिकारमें नन्दीश्वर दीपका वर्णन करते हुए अष्टाह्निक पर्व में जिनपूजा महोत्सवके निमित्त जानेवाले इन्द्रोंका उल्लेख किया गया है । उनमें लान्तव और कापिष्ठको छोडकर १४ इन्द्रोंका ही निर्देश पाया जाता है। पता नहीं इन दो इन्द्रौंकी निर्देशक गाथायें ही वहां स्खलित हो गई हैं या फिर वैसा कोई मतभेद ही रहा 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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