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________________ [ १७ ही हुई है, फिर भी उसमें कुछ ऐसी विशेषतायें दृष्टिगोचर होती हैं जिससे यह अनुमान होता है कि इसके रचयिता के सामने सम्भवतः लोकानुयोगका कोई अन्य ग्रन्थ भी अवश्य रहाँ है । वे विशेषतायें ये हैं I -- प्रस्तावना १. इसके चतुर्थ विभाग में जो राजुके अर्धच्छेदोंके पतनकी प्ररूपणा की गई है वहां २३ वें श्लोकमें राजुका एक अर्धच्छेद भारतान्त्यमें, एक निषध पर्वतपर और दो कुरुक्षेत्रों में भी निर्दिष्ट किये गये हैं । उनका निर्देश तिलोयपण्णत्ती (पृ. ७६५), धवला (पृ. ४, पृ. १५५ व १५६) और त्रिलोकसार (गा. ३५२-५८) में नही पाया जाता है । २. यहाँ पांचवें विभागके १३ वें श्लोकमें कल्पागों ( कल्पवृक्षों) के साथ दस जातिके वृक्षोंका निर्देश किया गया है। आगे १४-२३ श्लोकोंमें उसी क्रमसे नौ प्रकारके वृक्षोंकी फलदानशक्तिका उल्लेख करके २४ वें श्लोकमें दसवें भेदभूत उन कल्पागों (सामान्य वृक्ष-वेलियों) का उल्लेख किया गया है। यहां दीपांग जातिके वृक्षोंका निर्देश नहीं किया गया है। सम्भव है ज्योतिरंग वृक्षों के प्रकाश में दीपों को निरर्थकताका अनुभव किया गया हो । इन दस प्रकारके कल्पवृक्षों में दीपांग जातिके कल्पवृक्षोंका उल्लेख तिलोयपण्णत्ती (४- ३४२; ८२९ ), हरिवंश - पुराण ( ७-८०), आदिपुराण (३ - २९), ज्ञानार्णव (३५ - १७५) और त्रिलोकसार ( ७८७ ) आदि अनेक ग्रन्थोंमें उपलब्ध होता है । साथ ही उक्त ग्रन्थों में कल्पाग वृक्षोंकी एक पृथक् भेद स्वरूपसे उपलब्धि भी नहीं होती. इसके अतिरिक्त यह भी एक विशेषता यहां दृष्टिगोचर होती है कि जिस क्रमसे इन वृक्षोंके नामोंका निर्देश त्रिलोकसारमें किया गया है, ठीक उसी क्रमसे प्रायः पर्याय शब्दोंमें उन वृक्षोंके नामोंका निर्देश यहां भी किया गया है ३ । त्रिलोकसारमें जहां 'दीवगेहि दुमा दसहा' ऐसा कहा गया है वहां इस लोकविभाग में ' कल्पारौर्दशधा द्रुमाः ' ऐसा कहा गया है। साथ ही यहां भाजनांगके लिये जो 'भृङ्गाङ्ग' शब्दका उपयोग किया गया है, वह भी अपनी अलग विशेषता रखता है। कारण यह कि भृङ्ग शब्दका अर्थ कोशके अनुसार सामान्य या किसी विशेष भाजनरूप नहीं होता है । सम्भवतः यहां 'भृङगार' के एक देशरूप से 'भृङ्ग' का उपयोग किया गया है । ३. इसी पांचवें विभाग के ३५-३७ श्लोकोंमें क्षेत्रोंके साथ अढ़ाई द्वीपके तीस कुलपर्वतोंके ऊपर भी सुषमा सुषमा आदि विविध कालोंके प्रवर्तनका निर्देश किया गया है। इस प्रकारका उल्लेख अन्यत्र कहीं देखनेमें नहीं आया ' ४ 1 ४. छठे विभागमें चन्द्र के परिवारकी प्ररूपणा करते हुए श्लोक १६५-६६ में कुछ ही ग्रहोंका नामनिर्देश करके उन्हें चन्द्रके परिवारस्वरूप कहा गया है । परन्तु ति. प. (७, १४-२२ ) १. इसका कारण यह है कि इसमें उक्त ग्रन्थों के नामनिर्देशपूर्वक अनेक उद्धरण पाये जाते हैं । २. ग्रन्थकारने अन्तिम प्रशस्ति में सर्वनन्दिविरचित शास्त्रका स्वयं उल्लेख किया है । ३. तुरंग - पत्त- भूसण- पाणाहारंग- पुप्फ- जोइतरू । हंगा वत्थंगा दीवगेहि दुमा दसहा ॥ त्रि. सा. ७८७. मृदङ्ग-भृङ्ग-रत्नाङ्गाः पान - भोजन- पुष्पदाः । ज्योतिरालय-वस्त्राङ्गाः कल्पार्गर्दशधा द्रुमाः ॥ लो. ५- १३ Jain Education International ४. देखिये ति. प. महा. ४गा. १६०७, १७०३, १७४४ और २१४५ ( इस गाथामें निषध शैलका निर्देश अवश्य किया गया है) तथा त्रि. सा. गा. ८८२ - ८४ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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