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________________ १६] लोकविभागः द्वीप-समुद्रके ऊपर अवस्थित हैं, इसका निर्देश करते हुए उन विमानोंके आधार, बाहल्य, विमानगत प्रासादोंकी ऊंचाई और उन विमानोंके वर्णका भी कथन किया गया है। किस प्रकारके जीव किन देवोंमें उत्पन्न होते हैं तथा वहांसे च्युत हुए जीव किस किस अवस्थाको प्राप्त करते हैं और किस किस अवस्थाको नहीं प्राप्त करते हैं, इसकी भी प्रसंगवश प्ररूपणा करते हुए आगे सौधर्मादि इन्द्रोंके मुकुटचिह्न, अवस्थान, नगरोंके विस्तारादि, देवीसंख्या और उन देवियोंमें अग्रदेवियोंके प्रासादोंका भी कथन किया गया है । साथ ही उक्त सौधर्मादि इन्द्रोंके परिवार देव-देवियोंकी संख्या, आयु, आहार और उच्छ्वासकालका निर्देश करते हुए सुधर्मा सभाकी भव्यताका निरूपण करके इन्द्रके सुखोपभोगको सामग्री दिखलायी गई है । अन्तमें यहां वैमानिक देवोंमें प्रवीचारकी मर्यादा, शरीरकी ऊंचाई, लेश्या, विक्रिया, अवधिज्ञानका विषय, देव-देवियोंके उत्पत्तिस्थान, देवोंके जन्म-मरणका अन्तर, इन्द्रोंका विरहकाल, लौकान्तिक देवोंका अवस्थान व उनके भेदभूत सारस्वतादि लौकान्तिकोंकी संख्या, तथा उत्पत्तिके पश्चात् स्वर्गीय अभ्युदयको देखकर नवजात देवोंका आश्चर्यान्वित होते हुए पुण्यका फल जान प्रथमतः जिनपूजामें प्रवृत्त होना; इत्यादि का कथन करते हुए इस प्रकरणको समाप्त किया गया है । ११ मोक्षविभाग-- इन प्रकरणमें ५४ श्लोक हैं। यहां सिद्धोंके निवासस्थानभूत ईषत्प्रारभार पृथिवीके विस्तारादिको दिखलाकर उनके अवस्थान, अवगाहना, विशेष स्वरूप, उनके स्वाभाविक सुख और सांसारिक सुखकी तुलना तथा लोककी समस्त व पृथक् पृथक् ऊंचाई एवं विस्तारकी प्ररूपणा की गई है। अन्त में कैसा जीव सिद्धि को प्राप्त करता है, इसका उपसंहाररूपसे निर्देश करके अन्तिम प्रशस्तिमें ग्रथकी रचना व उसके प्रमाणादिका निरूपण किया गया है । ४. ग्रन्थकार प्रस्तुत ग्रन्थके रचयिता सिंहसूरर्षि हैं । ग्रन्थ के अन्तमें जो उन्होंने अतिशय संक्षिप्त प्रशस्ति दी है उसमें अपना व अपनी गुरुपरम्परा आदिका कुछ भी परिचय नहीं दिया है। जैसा कि ग्रन्थ-परिचयमें लिखा जा चुका है, वहां उन्होंने इतना मात्र निर्देश किया है कि श्री वर्धमान जिनेन्द्रके द्वारा समवसरण सभामें जो लोकविषयक उपदेश दिया गया था वह सुधर्मादि गणधर तथा अन्य आचार्योंकी परम्परासे जिस रूपमें प्राप्त हुआ उसी रूपमें उस लोकका वर्णन भाषामात्रके परिवर्तनसे इस ग्रन्थ द्वारा किया गया है । इतने मात्रसे उनके विषयमें कुछ विशेष परिज्ञात नहीं होता । सिंहसूर्षि यह नाम भी कुछ विचित्र-सा है। सम्भव है वे भट्टारक परम्पराके विद्वान् रहे हों। ग्रन्थके विवरणोंसे यह अवश्य जाना जाता है कि ग्रन्थकारका लोकविषयक ज्ञान उत्तम था और उन्होंने अपने पूर्ववर्ती लोकविषयक ग्रन्थोंका- विशेष कर वर्तमान तिलोयपण्णत्ती, हरिवंशपुराण और त्रिलोकसार आदिका- अच्छा परिशीलन किया था। ५. ग्रन्थका वैशिष्टय यद्यपि प्रस्तुत लोकविभागकी रचना वर्तमान तिलोयपण्णत्ती, हरिवंशपुराण, आदिपुराण, त्रिलोकसार और जंबू दीवपण्णत्ती आदि ग्रन्थोंके पर्याप्त परिशीलनके साथ उनके पश्चात् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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