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________________ - ९.९० ] नवमी विभागः [ १७३ शर्वरी सर्वसेना च रुद्रा व रुद्रदर्शना । राक्षसाणां भवन्त्येता गणिकानां महत्तराः ॥ ८३ पुंस्प्रियाथ च पुंस्कान्ता सौम्या पुरुषर्दाशनी । एताः किंपुरुषाख्यानां गणिकानां महत्तराः ॥ ८४ भद्रा नाम्ना सुभद्रा च मालिनी पद्ममालिनी । एता यक्षनिकायेषु गणिकानां महत्तराः ॥ ८५ योजनानां सहस्राणि अशीतिश्चतुरुत्तरा । विपुलानि पुराण्याहुर्गणिकानामशेषतः २ ।। ८६ । ८४००० । अष्टraft निकायेषु गणिकानां पुनः स्थितिम् । अर्धपल्योपमां ह्याहुः ३ पौराणिकमहर्षयः ॥ ८७ दश चापोच्छ्रया एते पञ्चाहादथ' साधिकात् । आहरन्ति मुहुर्तेभ्यस्तावद्भूयो निःश्वसन्ति च ॥ ऐशानान्ता सुराः सर्वे सप्तहस्तास्तु जन्मतः । स्वेच्छातो वैकियोत्सेधा ज्योतिषः सप्तचापकाः ॥ उन्मार्गस्थाः शबलचरिता ये निधानप्रयाता ये चाकामाद्विषयविरताः ७ पावकाद्यैर्मृताश्च । ते देवानां तिसृषु गतिषु प्राप्नुवन्ति प्रसूति मन्दाक्रान्ता मलिनमतिभिर्यैः कषायेन्द्रियाश्वाः ॥ ९० इति लोकविभागे मध्यमलोके व्यन्तरलोकविभागो नाम नवमं प्रकरणं समाप्तम् ॥ ९ ॥ व्यन्तरोंमें गणिकामहत्तरोंके नाम कहे गये हैं ॥ ८२ ॥ शर्वरी, सर्वसेना, रुद्रा और रुद्रदर्शना ये राक्षस जातिके व्यन्तरोंमें गणिकाओंके महत्तर होते हैं ।। ८३ ।। पुंस्प्रिया, पुंस्कान्ता, सौम्या और पुरुषदर्शनी ये किंपुरुष व्यन्तरोंके गणिकामहत्तरोंके नाम हैं ॥ ८४ ॥ भद्रा, सुभद्रा, मालिनी और पद्ममालिनी ये यक्षजातिके देवोंमें गणिकाओंके महत्तरोंके नाम कहे गये हैं ।। ८५ ॥ समस्त गणिकाओं के पुर चौरासी हजार ( ८४००० ) योजन विस्तृत कहे जाते हैं ।। ८६ ।। पुराणोंके ज्ञाता महर्षि आठों ही व्यन्तरनिकायोंमें गणिकाओं की स्थिति अर्ध पल्य प्रमाण बतलाते हैं ।। ८७ ।। ये व्यन्तर देव दस धनुष ऊंचे होते हैं। वे कुछ अधिक पांच दिनमें आहार करते हैं तथा उतने ही मुहूर्तों में निःश्वास लेते हैं ।। ८८ ।। ऐशान कल्प तकके सब देव जन्मसे सात हाथ ऊंचे होते हैं | परन्तु विक्रियासे निर्मित शरीर उनको इच्छाके अनुसार ऊंचे होते हैं । ज्योतिषी देव सात धनुष प्रमाण ऊंचे होते हैं ॥ ८९ ॥ जो कुमार्ग में स्थित हैं, दूषित आचरण करनेवाले हैं, निधानको प्राप्त हैं- सम्पत्ति में मुग्ध रहते हैं, विना इच्छाके विषयोंसे विरक्त हैं अर्थात् अकाम निर्जरा करनेवाले हैं तथा जो अग्नि आदिके द्वारा मरणको प्राप्त हुए हैं; ऐसे प्राणी देवोंकी तीन गतियों (भवनत्रिक) में जन्मको प्राप्त होते हैं । जिन मलिनबुद्धि प्राणियोंने कषाय एवं इन्द्रियरूप घोड़ोंके आक्रमणको मन्द कर दिया है ऐसे प्राणी भी इन देवोंमें उत्पन्न होते हैं [ यहां ' मन्द्राक्रान्ता ' पदसे छन्दका नाम भी सूचित कर दिया गया है ] ॥ ९० ॥ इस प्रकार लोकविभागमें मध्यम लोकमें व्यन्तरलोकविभाग नामक नौवां प्रकरण समाप्त हुआ ।। ९ ॥ १ प राक्षसानां । २ ब 'गंणिनाम' । ३ ब चाहुः । ४ ब 'दश । ५ आ ब निश्वसन्ति । ६ ब निदान । ७ प चाकामद्विषय | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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