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लोकविभागः
[९.१२शतयोजनबाहल्यं कूटमुत्कृष्टके मतम् । बहलं क्रोशमात्रं तु जघन्ये भवने भवेत् ॥१२ द्वीपेषु सागरस्थेषु भवनाख्यपुराणि तु। 'हृदपर्वतवृक्षांश्च श्रिताः प्रतिवसन्ति ते ॥ १३ पुराणि वृत्तत्र्यस्त्राणि चतुरस्राणि कानिचित् । दभ्राणि योजनोरूणि नियुतं तु बृहन्ति च ।। १४
।१०००००। तिर्यग्द्वीपसमुद्रेषु असंख्येयेषु तानि च । रम्याणि बहुरूपाणि नानारत्नमयानि च ॥ १५
. उक्तं च चतुष्कं [ त्रि. सा. २९८, ति. प. ६-१२, त्रि. सा. २९९-३००]जेट्ठावरभवणाणं बारसहस्सं तु सुद्धपणुवीसं। बहलं तिसय तिपादं बहलतिभागुदयकूडं च ॥ १
।१२०००। २५। ३००। ।१०। । कूडाण उवरिभागे चिट्ठते जिणवरिंदपासादा। कणयमया रजवमया रयणमया विविहविण्णासा॥ जे?भवणाण परिदो वेदी जोयणदलुच्छिया होदि । अवराणं भवणाणं दंडाणं पण्णवीसुदया ॥३ वट्टादीण पुराणं जोयणलक्खं कमेण एक्कं च । आवासाणं विसयाहियबारसहस्स य तिपादं ॥४
।१२२००।३।
पिशाचभूतगन्धर्वाः किनराः समहोरगाः । रक्षःकिंपुरुषा यक्षा निकाया व्यन्तरेष्विमे ॥ १६ । कूष्माण्डा राक्षसा यक्षाः संमोहास्तारकास्तथा। चौक्षाः कालमहाकाला अचौक्षाश्च सतालकाः ॥
सबसे छोटे भवनका बाहल्य तीन (३) कोस माना गया है ।। ११ ।। उत्कृष्ट भवनमें एक सौ (१००) योजन बाहल्यवाला तथा जघन्य भवनमें एक कोस मात्र बाहल्यवाला कूट होता है ॥ १२ ॥ समुद्रस्थ द्वीपोंमें भवन नामक पुर (भवनपुर ? ) होते हैं। वे (आवास ?) तालाब, पर्वत और वृक्षोंके आश्रित होकर रहते हैं ॥ १३॥ पुरोंमेंसे कितने ही गोल, त्रिकोण तथा चतुष्कोण भी होते हैं । इनमें क्षुद्र पुर एक योजन उरु (विस्तीर्ण) तथा महापुर एक लाख (१०००००) योजन उरु होते हैं । १४ ।। तिरछे असंख्यात द्वीप-समुद्रोंमें स्थित वे पुर रमणीय, बहुत आकारवाले और नाना रत्नमय हैं ॥ १५ ॥ यहां चार गाथायें भी कही गई हैं--
उत्कृष्ट और जघन्य भवनोंका विस्तार क्रमशः बारह हजार (१२०००) और शुद्ध (केवल) पच्चीस (२५) योजन मात्र है । बाहल्य उनका तीन सौ (३००) योजन और पौन (३) योजन होता है। उनके मध्ममें बाहल्यके तृतीय भाग ( १०० यो, ३ यो.) प्रमाण ऊंचा कूट अवस्थित होता है ।। १॥ कूटोंके उपरिम भागमें अनेक प्रकारकी रचनायुक्त सुवर्णमय, रजतमय और रत्नमय जिनेन्द्रप्रासाद अवस्थित हैं ॥ २॥ उत्कृष्ट भवनोंके चारों ओर आधा योजन ऊंची तथा जघन्य भवनोंके चारों ओर पच्चीस धनुष ऊंची वेदिका होती है ।। ३ ।। वृत्त आदि पुरोंका [ उत्कृष्ट व जघन्य ] विस्तार क्रमसे एक लाख (१०००००) योजन और एक(१) योजन मात्र तथा आवासोंका वह विस्तार क्रमसे बारह हजार दो सौ (१२२००) और पौन (३)योजन प्रमाण होता है ॥ ४॥
पिशाच, भूत, गन्धर्व, किंनर, महोरग, राक्षस, किंपुरुष और यक्ष; ये व्यन्तरोंमें आठ निकाय (भेद) हैं ।।१६।। कूष्माण्ड, राक्षस, यक्ष, संमोह, तारक, चौक्ष (शुचि), काल, महाकाल,
१५ ब हृद । २ आ श्यश्राणि प त्रयाणि । ३ आ प वउरिभागे। ४. आप आवासाणं विसयं विसया।
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