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________________ [ नवमो विभागः ] अनन्तदर्शनज्ञानान् प्राप्तानन्तं भवोदधेः । नत्वा व्यन्तरदेवानां विकल्पोऽत्र प्रवक्ष्यते ॥ १ औपपातिकसंज्ञाश्च अन्ये चाध्युषिता इति । अभियोग्यास्तृतीयाश्च त्रिविधा व्यन्तराः सुराः ॥ २ भवनान्यथ चावासा भवनाख्यपुराणि तु । स्थानानि त्रिविधान्याहुय॑न्तराणां समन्ततः ॥ ३ अष्टौ तु किनराधास्तु भवन्त्यावासवासिनः । द्विविधेषु वसन्त्येते भवनेषु पुरेषु च ॥ ४ । तिर्यगधिरे लोके मेरुमात्रप्रमाणके । वसत्यस्त्रिविधास्तत्र व्यन्तराणामवारिताः ॥५ वसुंधरायां चित्रायां सन्त्यत्र भवनानि हि । आवासास्तु न विद्यन्ते इति शास्त्रस्य निर्णयः ॥६ केषांचिद्भवनान्येव भवनावासा भवन्ति च । अन्येषामपरेषां च भवनावासपुराणि हि ॥ ७ आवासा वणिताः सर्वे प्राकारपरिवारिताः । भावनेष्वसुरांस्त्यक्त्वा केचित्स्युस्त्रिविधालयाः ॥८ भवनानां तु सर्वेषां वेविकाः परितो मताः । क्रोशद्वयोच्चा महतां शतहस्ताः परत्र च ॥९ द्वादशापि सहस्राणि द्वे शते च पृथूनि च । महान्त्यल्पानि मानेन त्रिकोशानीति लक्षयेत् ॥ १० ।१२२०० । [३] । बाहल्याद्भवनं वेद्यं शतानि त्रीणि यन्महत् । भवनेषु च सर्वाल्पं त्रिकोश बहलं मतम् ॥ ११ ।३००। [३]। जो अनन्तदर्शन एवं अनन्तज्ञानसे युक्त होकर संसार-समुद्र के अन्तको प्राप्त हो चुके हैं [ऐसे सिद्धोंको] नमस्कार करके यहां व्यन्तर देवोंके विकल्पको कहते हैं ॥१॥ औपपातिक संज्ञावाले, दूसरे अध्युषित और तीसरे अभियोग्य इस प्रकार व्यन्तर देव तीन प्रकारके हैं ॥२॥ भवन, आवास और भवनपुर ये तीन प्रकारके व्यन्तरोंके स्थान सब ओर कहे गये हैं ॥ ३ ॥ किनर आदि आठ प्रकारके व्यन्तर देव आवासोंमें निवास करनेवाले हैं, ये भवन और भवनपुर इन दो प्रकारके निवासस्थानोंमें रहते हैं ।। ४ । मेरुमात्र प्रमाणवाले तिर्यग्लोक, ऊर्ध्व लोक और अधोलोकमें व्यन्तर देवोंकी उपर्युक्त तीन प्रकारकी अवारित (स्वतन्त्र) वसतियां हैं ॥ ५॥ यहां चित्रा पृथिवीपर भवन स्थित हैं, किन्तु वहां आवास नहीं हैं; यह शास्त्रका निर्णय है ॥ ६ ॥ उपर्युक्त व्यन्तरोंमेंसे किन्हींके भवन ही हैं, दूसरोंके भवन व आवास दो हैं, तथा इतर व्यन्तरोंके भवन, आवास एवं भवनपुर तीनों ही होते हैं ।।७॥ सब आवास प्राकारसे परिवेष्टित बतलाये गये हैं। भवनवासी देवोंमें असुरकुमारोंको छोड़कर किन्हींके तीनों प्रकारकी वसतियां हैं ।। ८ ॥ सब भवनोंके चारों ओर वेदिकायें मानी गई हैं । ये वेदिकायें महाभवनोंकी दो कोस ऊंची तथा अन्य भवनोंकी सौ (१००) हाथ ही ऊंची हैं ॥९॥ महाभवनोंका विस्तार बारह हजार दो सौ (१२२००) योजन और अल्प भवनोंका विस्तार तीन ( ३ ) कोस जानना चाहिये ।। १० ।। इन भवनोंमें जो महाभवन है उसका बाहल्य तीन सौ (३००) योजन तथा १प मवारितः । २ व द्वयोश्चा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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