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________________ १६४ ] लोकविभागः [ ८.१२३ १२३ कुमार्गगतचारित्रा देवाश्चासुरकायिकाः । नारकानतिबाधन्ते तिसृष्वाद्यासु भूमिषु ॥ मेषकुक्कुटयुद्धाद्यं रमन्तेऽत्र यथा नराः । तथापि ते ति यान्ति रागवेगेन पूरिताः ॥ १२४ ईप्सितालाभतो दुःखमनिष्टैश्च समागमात् । अवमानभयाच्चैव जायते सागरोपमम् ॥ १२५ सहस्रशोऽपि छिन्नाङ्गा न म्रियन्ते हि नारकाः । सूतकस्य रसस्येव संहन्यन्ते तनोर्लवाः ॥ १२६ अकालमरणं नैषां समाप्ते पुनरायुषि । विध्वंसन्ते च तत्काया वायुना भ्रलवा इव ।। १२७ कुचरितचितैः पापस्तीत्रैरधोगतिपातिताः, अवशशरणाः शीतोष्णादिक्षुधावधपीडिताः । अतिभयरुजः श्राम्यन्त्यार्ताः भ्रमैर्बत नारकाः, श्वगण विषमव्याधाक्रान्ता यथा हरिणीवृषाः ॥ १२८ ॥ इति अधोलोकविभागो नामाष्टमं प्रकरणं समाप्तम् ॥ ८ ॥ वहां प्रथम तीन पृथिवियोंमें कुमार्गगत चारित्रवाले (दुष्ट आचरण करनेवाले) असुर जाति देव भी उन नारकियोंको अत्यन्त बाधा पहुंचाते हैं । जैसे यहांपर मनुष्य मेषों और मुर्गों आदिको लड़ाकर आनन्दित होते हैं वैसे वे भी रागके वेगसे परिपूर्ण होते हुए उन नारकियोंको परस्परमें लड़ाकर आनन्दको प्राप्त होते हैं ।। १२३-२४ ।। उक्त नारकी जीवोंको इष्ट वस्तुओंका लाभ न हो सकनेसे, अनिष्ट वस्तुओं का संयोग होनेसे, तथा अपमान एवं भयके कारण भी समुद्र के समान महान् ( अथवा सागरोपम काल तक ) दुख होता है ।। १२५ ।। नारकी जीव हजारों प्रकारसे छिन्नशरीर होकर भी मरणको प्राप्त नहीं होते । उनके शरीरके टुकड़े पारेके समान विखर कर फिरसे जुड़ जाते हैं ।। १२६ ।। इनका अकालमरण नहीं होता, परन्तु आयुके समाप्त होनेपर उनके शरीर इस प्रकार नष्ट हो जाते जिस प्रकार कि वायुके द्वारा अभ्रकके टुकड़े विखर कर नष्ट हो जाते हैं ।। १२७ ।। दुष्टतापूर्ण आचरणोंसे संचित हुए तीव्र पापोंके द्वारा अधोगतिमें डाले गये, अवश, अशरण, शीत व उष्ण आदिकी बाधाके साथ क्षुधा एवं वधकी पीड़ा सहित, तथा अतिशय भयरूप रोग से संयुक्त ऐसे वे नारकी जीव श्रमोंसे पीड़ित होकर इस प्रकार दुखी होते हैं जैसे कि कुत्तोंके समूहके साथ भयानक व्याधसे त्रस्त होकर हरिणी एवं हरिण दुखी होते हैं ।। १२८ ।। इस प्रकार अधोलोकविभाग नामका आठवां प्रकरण समाप्त हुआ ॥ ८ ॥ १ [ तथैव ] २ आप समाप्तेषु नरायुषि । ३ प चित्तः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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