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________________ -८.१२२] अष्टमो विभागः [१६३ वृश्चिकाणां सहस्राणां वेदनादतिदुःसहम् । दुःखमुत्पद्यते तत्र भूमिस्पर्शनमात्रतः ॥ ११२ सज्वाला विस्फुलिङ्गागायः प्रतिमा लोहसंनिभाः । परशुच्छुरिकाबाणाद्यसिपत्रवनानि च ॥ वेतालगिरयो भीमा गुहायन्त्रशतोत्कटाः । कूटशाल्मलयोऽचिन्त्या वैतरण्योऽपि निम्नगाः ॥ ११४ घूकशोणितदुर्गन्धाः कृमिकोटिकुलाकुलाः । हृदाश्च परितस्तत्र अस्तकातरदुस्तराः ॥ ११५ अग्निभीताः प्रधावन्तो गत्वा वैतरणी नदीम् । शीतं तोयमिति ज्ञात्वा क्षाराम्भसि पतन्ति ते ।। क्षारदग्धशरीराश्च भृगवेगोत्थिताः पुनः । असिपत्रवनं यान्ति छायेति कृतबुद्धयः ॥ ११७ शक्तिकुन्तासियष्टीभिः खड्गतोमरपट्टिसः । छिद्यन्ते कृपणास्तत्र पतद्भिर्वातकम्पितैः ॥ ११८ छिन्नपादभुजस्कन्धाश्छिन्नकर्णोष्ठनासिकाः । छिन्नतालु शिरोदन्ताश्छिन्नाक्षिहृदयोदराः ॥११९ असह्यं शीतमुष्णं च पृथिवी चातिदुस्सहा । क्षुधातृषाभयत्रासवेदनाश्चात्र संतताः ॥ १२० लोहाम्भोभरिताः कुम्भ्यः कटाहाः क्वथितोदकाः । चित्राः प्रज्वलिताः शूला भर्जनानि बहुनि च ॥ बहून्येवं प्रकाराणि यातनाकारणानि तु । विक्रियातः स्वभावाच्च प्राणिनां पापकर्मणाम् ॥ १२२ नवीन तृणोंसे व्याप्त है ॥ १११ ॥ वहांकी भूमिके स्पर्श मात्रसे हजारों बिच्छुओंके काटनेकी वेदनासे भी अत्यन्त दुःसह वेदना उत्पन्न होती है ।। ११२ ।। ___ वहां चारों ओर ज्वाला एवं विस्फुलिंगोंसे व्याप्त अंगवाली लोहसदृश ( या लोहनिर्मित) प्रतिमायें ; फरसा, छुरी व बाण आदिके समान तीक्ष्ण पत्तोंवाले असिपत्रवन ; सैकड़ों गफाओं एवं यंत्रोंसे उत्कट ऐसे भयानक वेतालगिरिः अचिन्त्य कटशाल्मली. वैतरणी नदियां तथा उलूकोंके खूनसे दुर्गन्धित और करोड़ों कीड़ोंके समूहोंसे व्याप्त ऐसे तालाब हैं जो कातर नारकियोंके लिये दुस्तर हैं ॥ ११३-११५ ।। अग्निसे भयभीत होकर दौड़ते हुए वे नारकी वैतरणी नदीपर जाते हैं और शीतल जल समझकर उसके खारे जलमें जा गिरते हैं।। ११ उस खारे जलसे शरीरमें दाह जनित पीडाका अनुभव करनेवाले वे नारकी मृगके समान वेगमे उठकर फिर छायाकी अभिलाषासे असिपत्रवन में प्रविष्ट होते हैं । परन्तु वहां भी वे निकृष्ट नारकी वायुसे कम्पित होकर गिरनेवाले शक्ति, भाला, तलवार, यष्टि, खड्ग, बाण और पट्टिस (शस्त्रविशेष); इन आयुधोंके द्वारा छेदे जाते हैं ।। ११७-१८ । उक्त आयुधों के द्वारा उन नारकियोंके पैर, भुजायें, कन्धे, कान, ओठ, नाक, तालु, शिर, दांत, आंखें, हृदय और उदर छिन्न-भिन्न हो जाते हैं ।। ११९ । नरकोंमें शीत व उष्णकी वेदना असह्य होती है । वहांकी पृथिवी दुःसह दुखको देनेवाली है । नरकोंमें क्षुधा, तृषा और भयके कष्टका वेदन निरन्तर हुआ करता है । १२० ॥ वहांपर लोहजलसे भरी हुई कुम्भियां (घड़े), उबलते हुए जलसे परिपूर्ण कड़ाहे, जलते हुए विचित्र शूल (शस्त्रविशेष) और बहुतसे भाड़ (भट्टियां); इस प्रकारके बहुत-से यातनाके कारण उन पापी नारकियोंके लिये स्वभावसे और विक्रियासे भी प्राप्त होते हैं ।। १२१-२२ ।। __ । १ प लिंगांढयः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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