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लोकविभागः
[८.१०३तिसभ्यो निर्गतो जीवः कश्चित्तोर्यकरो भवेत् । चतसृस्यो हि मोक्षाहः पञ्चभ्यः संयतोऽपि च ।। संयतासंयतः षष्ठ्याः सप्तम्यास्तु मृतोद्गतः । सम्यक्त्वार्हो भवेत्कश्चित्तिर्यक्ष्वेष्वात्र जायते ॥१०४
उक्तं च [त्रि. सा. २०४]णिरयचरो पत्थि हरी बलचक्की तुरियपहुदिणिस्सरिदो।
तित्थचरमंगसंजद मिस्सतियं णत्थि णियमेण ॥१६ । विक्रिया चाशुभा तेषामपृथक्त्वेन भाषिता । आयुधानि शरादीनि अग्न्यादित्वं च कुर्वते ॥ १०५ शकुतोमरकुन्तेष्टिप्रासवास्यासमुद्गरान् । चक्रक्रकचशूलादीन् स्वाङ्रेव विकुर्वते ॥१०६ अग्निवायुशिलावृक्षक्षारतोयविषादिताम् । गत्वा परस्परं घोरं घातयन्ति सदापि ते ॥ १०७ व्याघ्रगृध्रमहाकङकध्वाक्षकोकवृकश्वताम् । विकृत्य विविध रूपैर्बाधन्ते च परस्परम् ॥ १०८ वधबन्धनबाधाभिश्छिदताडनतोदनैः । स्फाटनच्छोटनच्छेदक्षोदतक्षणभक्षणः ॥ १०९ संततैश्चरितैस्तोबेरशुभैरिति गहितः । तुष्यन्ति च चिरं ते च गमयन्ति च जीवितम् ॥११० तप्तलोहसमस्पर्शशर्कराक्षुरवालुका। मुर्मुराङ्गारिणी भूमिः सूचीशाहलसंचिता ॥ १११
प्रथम तीन पृथिवियोंसे निकला हुआ कोई जीव तीर्थकर हो सकता है, चार पृथिवियोंसे निकला हुआ जीव मोक्ष जानेके योग्य होता है, पांच पृथिवियोंसे निकला हुआ कोई जीव संयत हो सकता है, छठी पृथिवीसे निकला हुआ जीव संयतासंयत हो सकता है, तथा सातवीं पृथिवीसे मरकर निकला हुआ कोई जीव सम्यक्त्वप्राप्तिके योग्य होता है, परन्तु वह यहां तिर्यंचोंमें ही उत्पन्न होता है ।। १०३-४ ।। कहा भी है
पूर्व भवका नारकी जीव नारायण, बलदेव और चक्रवर्ती नहीं होता। चतुर्थ आदि पृथिवियोंसे निकला हुआ जीव क्रमसे तीर्थंकर, चरमशरीरी, सं यत और मिश्रत्रय (मिश्र असंयत, सम्यग्दृष्टि, और संयतासंयत) को नियमतः प्राप्त नहीं होता।।१६॥
__ उन नारकी जीवोंके अशुभ अपृथक् विक्रिया कही गई है । वे बाण आदि आयुधोंकी तथा अग्नि आदिकी अपनेसे अपृथक् विक्रिया किया करते हैं । वे अपने अंगोंसे ही शंकु, तोमर (बाण), कुन्तेष्टि (भाला की लकड़ी), प्रास (भाला),वासी, तलवार, मुद्गर, चक्र, कच(आरी) और शूल आदिकोंको विक्रिया करते हैं ।।१०५-६।। वे नारकी सदा ही अग्नि, वायु, शिला, वृक्ष, क्षार जल और विष आदिके स्वरूपको प्राप्त होकर एक दूसरेको भयानक कष्ट पहुंचाते हैं ॥१०७ ।। वे व्याघ्र, गिद्ध, महाकंक (पक्षिविशेष), काक, चक्रवाक, भेड़िया और कुत्ता; इन हिंसक जीवोंकी अनेक प्रकारके रूपों द्वारा विक्रिया करके परस्परमें बाधा पहुंचाते हैं ॥ १०८।। उक्त नारकी जीव वध-बन्धन रूप बाधाओंसे तथा छिद् (छेदन), ताड़न, तोदन, स्फाटन, छोटन, छेद, क्षोद, तक्षण और भक्षण स्वरूप निरन्तर आचरित तीव्र, अशुभ एवं निन्द्य प्रवत्तियों के द्वारा सन्तुष्ट होते हैं और चिर काल ( कई सागरोपम ) तक अपने जीवनको विताते हैं ॥ १०९-११० ॥ मुर्मुर ( उपलोंकी अग्नि ) के समान अंगारवाली वहांकी भूमि तपे हुए लोहेके समान स्पर्शयुक्त पाषाणों एवं छुराके समान तीक्ष्ण वालुसे संयुक्त तथा सुईके समान नुकीले
१ आ प 'मिचिंदताडण । २ ब स्याड्वल ।
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