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________________ -८.१०२] अष्टमो विभागः [१६१ सप्तम्या अप्रतिष्ठानाच्च्युत्वा तं यद्यनन्तरम् । विशेत्पुन: सकृद्यायात् कालादीन् द्विर्धरा अपि ॥ शेषामवनिमेकैकां नरकावासमेव वा। ततश्च्युतस्तथा यायात्प्रत्येकं च त्रिरादि सः ॥ १०१ पाठान्तरम् । नरकान्निर्गतः कश्चिच्चक्रवर्त्यप्यनन्तरम् । रामः कृष्णोऽथवान्यो वा न भवेदिति निश्चितम् ॥ विशेषार्थ- इसका अभिप्राय यह है कि सातवीं पृथिवीसे निकला हुआ नारकी जीव यदि फिर निरन्तर स्वरूपसे वहां जावे तो वह एक वार ही जावेगा, अधिक बार नहीं । छठी पृथिवीसे निकला हआ जीव यदि निरन्तर स्वरूपसे छठी पृथिवीमें जाता है तो वह दो वार ही वहां जा सकेगा, अधिक नहीं। इसी प्रकार पांचवीं आदि पथिवियोंसे निकले हए जीवोंकी भी वहां निरन्तर गति क्रमसे तीन, चार, पांच, छह और सात वार ही हो सकती है- इससे अधिक बार नहीं हो सकती। इस विषयमें तिलोयपण्णत्ती (२, २८६) और त्रिलोकसार (२०५) के रचयिताओंका अभिप्राय इससे भिन्न रहा प्रतीत होता है। उनके अभिप्रायानुसार सातवों आदि पृथिवियोंसे निकले हुए जीवोंके निरन्तर स्वरूपसे उन उन पृथिवियोंमें जानेका क्रम यथाक्रमसे इस प्रकार है- दो, तीन, चार, पांच, छह सात और आठ । त्रिलोकसारकी टीका (माधवचन्द्र विद्य देवकृत) में इसका स्पष्टीकरण करते हुए बतलाया है कि कोई असंज्ञी जीव प्रथम नरकमें जाकर और फिर वहांसे निकलकर संज्ञी हआ। पुनःमरणको प्राप्त होकर वह असंज्ञी होता हआ फिरसे प्रथम नरकमें उत्पन्न हुआ । यह एक वार उत्पत्ति हुई । इसी प्रकारसे असंज्ञी जीव निरन्तर स्वरूपसे वहां आठ वार उत्पन्न हो सकता है। चूंकि असंज्ञी जीवका नरकमें जाकर और वहांसे निकल कर असंज्ञी हो फिरसे प्रथम नरकमें जाना शक्य नहीं है, अतएव यहां एक अन्तर (संज्ञी पर्यायका) ग्रहण करना चाहिये । परन्तु सरीसृप आदि जीव नरकमें जाकर और वहांसे निकल कर फिरसे सरीसृप आदि होते हुए निरन्तर स्वरूपसे ही उन उन नरकोंमें जा सकते हैं, अत एव उनके विषयमें एक अन्तर नहीं ग्रहण किया जा सकता है । मत्स्य सातवें नरकमें जाकर और वहांसे निकल कर तिर्यंच हो मरा और फिरसे मत्स्य हुआ। तत्पश्चात् वह मरणको प्राप्त होकर पुनः सातवें नरकमें जाता है। इसी प्रकार मनुष्यकी भी वहां दो वार निरन्तर उत्पत्ति समझना चाहिये। पाठान्तर- सातवीं पृथिवीके अप्रतिष्ठान नामक बिलसे निकल कर जीव यदि निरन्तर उसमें प्रविष्ट होता है तो वह एक वार वहां फिरसे जा सकता है। परन्तु इसी पृथिवीके काल आदि (रौरव, महाकाल व महारौरव) बिलोंमें वह दो वार भी जा सकता है । शेष छठी आदि पृथिवियोंमेंसे प्रत्येक पृथिवीमें अथवा बिलोंमें वहांसे च्युत होकर यदि कोई निरन्तर रूपसे फिर वहां उत्पन्न होता है तो वह प्रत्येकमें यथाक्रमसे तीन आदि (चार, पांच, छह, सात व आठ) वार जा सकता है । यह अभिमत तिलोयपण्णत्ती और त्रिलोकसारमें निर्दिष्ट अभिमतसे समानता रखता है ।। १००-१०१ ।।। नरकसे निकल कर कोई भी जीव अनन्तर भवमें चक्रवर्ती, राम (बलदेव), कृष्ण (नारायण) अथवा अन्य (प्रतिनारायण) नहीं हो सकता है; यह निश्चित है ॥ १०२॥ को. २१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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