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लोकविभागः
[८.९१द्वयोः कपोतलेश्यास्तु नीललेश्याश्च तत्परे । नीला एवाञ्जनोत्पन्ना नीलकृष्णाश्च तत्परे ।। ९१ षठ्यां दुःकृष्णलेश्यास्ते महाकृष्णास्ततः परे । क्रमशोऽशुभवृद्धिः स्यात्तत्र सप्तसु भूमिषु ॥ ९२ सचतुर्भागगव्यूतिस्तिस्रो योजनसप्तकम् । घर्मायामुत्पतन्त्यार्ताः शेषासु द्विगुणाः क्रमात् ॥ ९३
यो. ७ को १३ । १५ को २ । ३१ को १ । ६२ को २ । १२५ । २५० । ५०० । षट्चतुष्कं मुहूर्तानां सप्ताहं पक्ष एव च । मासो मासौ च चत्वारः षण्मासा जननान्तरम् ॥ ९४
मु. २४ । दि ७ । १५ । मा. १ । २ । ४।६। कर्मभूमिमनुष्याश्च तिर्यञ्चः सकलेन्द्रियाः । नरकेषूपपद्यन्ते निर्गतानां च सा गतिः ॥ ९५ अमनस्काः प्रसर्पन्तः पक्षिणोऽपि भुजंगमाः। सिंहाः स्त्रियो मनुष्याश्च साप्चरा यान्ति ताः क्रमात्॥ एका द्वे खलु तिस्रश्च चतस्रः पञ्च षट् तथा । सप्त च क्रमशो भूमोर्गन्तुमर्हन्ति जन्तवः ॥ ९७ सप्तम्या निर्गतो जन्तुर्यायात्सकृदनन्तरम् । द्विः षष्ठि पञ्चमी च त्रिश्चतुर्थों च चतुस्ततः ॥ ९८ पञ्चकृत्वस्तृतीयां च वंश्यां षट्कृत्व एव च । सप्तकृत्वो विशेदाद्यां प्रथमाया विनिर्गतः ॥ ९९
प्रथम दो पृथिवियोंमें उत्पन्न नारकियोंके कपोत लेश्या, उसके आगे तृतीय पृथिवीमें नील लेश्या, चतुर्थ अंजना पृथिवीमें उत्पन्न नारकियोंके एक नील लेश्या, पांचवीमें नील और कृष्ण, छठीमें दुःकृष्ण लेश्या (मध्यम कृष्ण लेश्या) और उसके आगे सातवीं पृथिवीमें उत्पन्न नारकियोंके महाकृष्ण लेश्या होती है । इस प्रकार उन सात पृथिवियोंमें क्रमसे अशुभ लेश्याकी वद्धि होती गई है ।। ९१-९२॥
धर्मा पृथिवीमें उत्पन्न हुए नारकी जीव पीड़ित होकर जन्मभूमिसे नीचे गिरते हुए सात योजन, तीन कोस और एक कोसके चतुर्थ भाग (५०० धनुष) प्रमाण ऊपर उछलते हैं। शेष पृथिवियोंमें वे क्रमशः इससे दूने दूने ऊपर उछलते हैं ।। ९३ ।। उछलन प्रथम पृथिवीमें ७ यो. ३ को., द्वि. पृ. १५ यो. २३ को., तृ. पृ. ३१ यो. १ को., च. पृ. ६२ यो. २ को., पं. पृ. १२५ यो., ष. पृ. २५० यो., स. पृ. ५०० यो.।
___ छह चतुष्क अर्थात् चौबीस (६x४) मुहूर्त, एक सप्ताह, एक पक्ष, एक मास, दो मास, चार मास और छह मास ; इतना क्रमसे उन घर्मा आदि सात पृथिवियोंमें नारको जीवोंके जन्म-मरणका अन्तर होता है ।। ९४ ।।
अन्तर-- प्रथम पृथिवीमें २४ मुहूर्त, द्वि. पृ. ७ दिन, तृ. पृ. १५ दिन, च. पृ. १ मास, पं. पृ. २ मास, ष. पृ. ४ मास, स. पृ. ६ मास ।।
कर्मभूमिके मनुष्य और तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीव उन नरकोंमें उत्पन्न होते हैं । तथा उन नरकोंसे निकले हुए नारकी जीवोंकी वही गति भी होती है, अर्थात् उक्त नरकोंसे निकले हुए जीव कर्मभूमिके मनुष्य और तिर्यंच पंचेन्द्रियोंमें ही उत्पन्न होते हैं ।। ९५ ॥ असंज्ञी, सरीसृप, पक्षी, सर्प, सिंह, स्त्रियां और अप्चरों (जलचरों) अर्थात् मत्स्यों के साथ मनुष्य भी क्रमशः उन पृथिवियोंको प्राप्त होते हैं । असंज्ञी जीव एक मात्र धर्मा पृथिवीमें जानेकी योग्यता रखते हैं । इसी प्रकार सरीसप दो (प्रथम और द्वितीय), पक्षी तीन, सर्प चार, सिंह पांच, स्त्रियां छह तथा मत्स्य व मनुष्य सातों ही पृथिवियोंमें जानेकी योग्यता रखते हैं ।। ९६-९७ ।। सातवीं पृथिवीसे निकला हआ जीव यदि निरन्तर सातवीं पृथिवीमें जाता है तो वह एक वार ही जाता है। छठी पथिवीसे निकला जीव यदि फिरसे वहां निरन्तर जाता है तो वह दो वार जाता है। इसी प्रकार पांचवींसे निकला हुआ तीन वार, चौथीसे निकला हुआ चार वार, तीसरीसे निकला हुआ पांच वार, दूसरी वंशा पृथिवीसे निकला हुआ छह वार और पहिलीसे निकला हुआ जीव सात वार उन उन पृथिवियोंमें निरन्तर प्रविष्ट हो सकता है ।। ९८-९९ ।।
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