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-८.९० अष्टमो विभागः
[ १५९ पञ्चेन्द्रियास्त्रियोगाश्च कषायः सकलयुताः । नपुंसकाश्च षड्ज्ञाना दर्शनैः सहितास्त्रिभिः ॥ ८६ कुदृक् सासादनो मिश्रोऽसंयतश्च चतुर्गुणाः । त्रिलेश्या भावलेश्याभिभव्याभव्याश्च संजिनः ॥ ८७ भूमी द्वे वर्जयित्वान्त्ये पञ्चम्यां नियुतं तथा । द्वयग्रायां नियुताशोत्यां नरकेष्वोषण्यवेदना।।
८२०००००। अरिष्टायास्त्रिभागे च भूम्योरपि च शेषयोः । निरयेषूपमातीता अत्युमा शीतवेदना ॥ ८९
२००००० । उक्तं च [ त्रि. सा. १५२, ति. प. २-३२]-- रयणप्पहपुढवीदो पंचमतिच उत्थओ त्ति अदिउण्हं। पंचमतुरिये छठे सत्तमिये होदि अदिसीदं ॥
८२२५००० । १७५०००। मेरुसमलोहपिण्डं सोदं उण्हे विलम्हि पक्खित्तं । ण लहदि तलप्पदेसं विलीयदे मयणखंडं व ॥ १५ घोरं तीवं महाकष्टं भीमं भीष्म भयानकम् । दारुणं विपुलं चोग्रं दुःखमश्नुवते खरम् ॥ ९०
__ प्रथममें ४ कोस, द्वितीय ३३ को., तृतीय ३ को., चतुर्थ २३ को., पंचम २ को., षष्ठ १६ को., सप्तम १ कोस.।
चौदह मार्गणाओंके कयनमें नरकगतिमें स्थित नारको जीव पंचेन्द्रिय, [त्रसकाय], मन वचन व काय स्वरूप तीनों योगोंसे सहित, समस्त कषायोंसे संयुक्त, नपुंसक वेदवाले; मति, श्रुत, अवधि, कुमति, कुश्रुत और विभंग इन छह ज्ञानोंसे तथा चक्षु, अचक्षु और अवधि स्वरूप तीन दर्शनोंसे सहित; मिथ्यादृष्टि, सासादन, मिश्र एवं असंयतसम्यग्दृष्टि इन चार गुणस्थानोंसे युक्त; कृष्णादिक तीन भाव लेश्यायोंसे [ तथा एक उत्कृष्ट कृष्ण द्रव्यलेश्यासे ] सहित, भव्य व अभव्य तथा संज्ञी होते हैं ।। ८६-८७ ।।
अन्तिम दो पृथिवियोंको तथा पांचवीं पृथिवीके एक लाख बिलोंको छोड़कर शेष प्रथमादिक पृथिवियोंके ब्यासी लाख (८२०००००) नारक बिलोंमें उष्णताकी वेदना है। अरिष्टा (पांचवीं) पृथिवीके एक त्रिभाग अर्थात् एक लाख बिलोंमें तथा शेष अन्तिम दो पृथिवियोंके नारक बिलोंमें (१०००००+९९९९५+५=२०००००) अतिशय तीक्ष्ण शीतकी वेदना है जो उपमासे अतीत अर्थात् असाधारण है ।। ८८-८९ ॥ कहा भी है
__ रत्नप्रभा पृथिवीसे लेकर पांचवीं पृथिवीके तीन बटे चार भागः (३०००००४३= २२५०००) तक अत्यन्त उष्णवेदना है। आगे पांचवीं पृथिवीके शेष एक चतुर्थ भाग (1) ( ३०००००x१=७५०००) तथा छठी और सातवीं पृथिवीमें अत्यन्त शीतवेदना है ॥ १४ ॥
प्रथम पृथिवीके ३००००० + द्वि. पृ २५००००० + तृ. पृ. १५००००० + च. पृ. १००००००+पं. पृ. ३०००० ०x३=८२२५०००; इतने नारक बिलोंमें उष्णवेदना तथा पं. पृ.३००००°४५ +छठी पृ. ९९९९५+सातवीं पृ. ५=१७५००० ; इतने बिलोंमें शीत वेदना है।
___ यदि उष्ण बिलमें मेरुके बराबर लोहेका शीत पिण्ड फेंका जावे तो वह तल प्रदेशको न प्राप्त होकर बीच में ही मदनखण्ड अर्थात् मैनके खण्डके समान विलीन हो सकता है।॥ १५॥
उन नरकोंमें जीवोंको घोर, तीव्र, महाकष्ट, भीम, भीष्म, भयानक, दारुण, विपुल, उग्र और तीक्ष्ण दुख प्राप्त होता है ।। ९० ॥
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