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लोकविभागः
[८.७३खराक्षघनस्पर्शा दुर्गन्धा भीमरूपकाः । नित्यान्धकारा अशुभा वचकुडचतलाश्च ते ॥ ७३ बहिरस्त्रिकुसंस्थाना अन्तर्वृत्ता दुरीक्षणाः' । निगोदाः परमानिष्टाः कष्टाः पापिजनाश्रयाः ॥७४ श्वाश्वशूकरमार्जारनृखरोष्ट्राहिहस्तिनाम् । कुथितानां समस्तानां गन्धादधिकगन्धिनः ॥ ७५ कच्छरीकरपत्राश्मश्वदंष्ट्रापुञ्जतोऽधिकम् । निगोदानां च तज्जानां स्पृश्यत्वमशुभ सदा ॥७६ संख्येयविस्तृतानां तु निगोदानां यदन्तरम् । षड्गोरुतं भवेद् ध्रस्वं महत्तद्विगुणं मतम् ॥ ७७
६ । १२। असंख्यविस्तृतानां च सहस्राणि च सप्त च । योजनान्यतरं ह्रस्वमसंख्यानि बृहद्भवेत् ॥ ७८ सप्त दण्डानि रत्नीस्त्रीनुच्छिताः तास्ते]षडङगुलान्। नारकाःप्रथमायां ये शेषासु द्विगुणाः क्रमात् ॥ वं ७ ह ३ अं६। दं १५ ह २। अं१२। दं ३१ ह १ । दं ६२ ह २। दं १२५ । दं २५० । दं५००। एकस्त्रयश्च सप्त स्युर्दश सप्तदशैव च । द्वाविंशतित्रर्यास्त्रशत्सागरास्तेषु जीवितम् ॥ ८० दशवर्षसहस्राणि प्रथमायां जघन्यकम् । समयेनाधिकं पूर्व वरं परजवन्यकम् ॥ ८१
वे अशुभ जन्म भूमियां तीक्ष्ण, रूक्ष एवं घन स्पर्शसे सहित; दुर्गन्धसंयुत, भयानक रूपवाली ओर शाश्वतिक अन्धकारसे व्याप्त हैं । उनकी भीतें और तलभाग वज्र मय हैं ॥७३ ।। दुर्दर्शनीय उन जन्मभूमियोंका आकार बाह्यमें करोंत जैसा तया अभ्यन्तर भागमें गोल है। पापी जनोंको आश्रय देनेवाली वे भूमियां अतिशय अनिष्ट और कष्टदायक हैं।। ७४ ।। उपर्युक्त जन्मभूमियां कुत्ता, घोड़ा, शूकर, बिलाव, मनुष्य, गर्दभ, ऊंट, सर्प और हाथी इन सबके सड़े-गले शरीरोंकी दुर्गन्धकी अपेक्षा भी अधिक दुर्गन्धसे संयुक्त हैं ॥ ७५ ॥ उन जन्मभूमियोंका तथा उनमें उत्पन्न नारकियोंका स्पर्श सदा कच्छुरी (कपिकच्छ), करपत्र (करोंत), पत्थर और कुत्तेकी दाढोंके समूहसे भी अधिक अशुभ होता है ।। ७६ ।।
संख्यात योजन विस्तारवाले बिलोंके मध्यमें जो तिरछा अन्तर है वह जघन्यसे छह (६) गव्यूति और उत्कर्षतः इससे दूना (१२ गव्यूति) माना गया है ।। ७७ ।। असंख्यात योजन विस्तारवाले बिलोंका जघन्य अन्तर सात हजार (७०००) और उत्कृष्ट असंख्यात योजन मात्र है ।। ७८ ॥
प्रथम पृथिवीमें जो नारकी हैं वे सात धनुष, तीन रत्नि और छह अंगुल ऊंचे हैं। शेष दूसरी आदि पृथिवियोंमें वे उत्तरोत्तर क्रमसे इससे दुगुणे दुगुणे ऊंचे हैं- प्रथम नरकमें ७ धनुष ३ हाथ ६ अंगुल, द्वितीयमें १५ धनुष २ हाथ १२ अंगुल, तृतीयमें ३१ धनुष १ हाथ, चतुर्थमें ६२ धनुष २ हाथ, पंचममें १२५ धनुष, छठेमें २५० धनुष, सातवेंमें ५०० धनुष ॥ ७९ ॥
__ उन नरकोंमें क्रमशः एक, तीन, सात, दस, सत्तरह, बाईस और तेतीस सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट आयु होती है ।। ८० ॥ जघन्य आयु प्रथम नरकमें दस हजार (१००००) वर्ष प्रमाण है । आगे द्वितीय आदि नरकोंमें पूर्व पूर्व नरकोंकी एक समयसे अधिक उत्कृष्ट आयुको जघन्य समझना चाहिये (जैसे - पहले नरकमें उत्कृष्ट आयु १ सागरोपम प्रमाण है, वही एक समयसे अधिक होकर दूसरे नरकमें जघन्य है, दूसरेमें जो ३ सागरोपम उत्कृष्ट आयु है वह एक समयसे अधिक होकर तीसरेमें जघन्य है, इत्यादि) ॥ ८१ ।। कहा भी है -
१ आ प धुरीक्षणाः । २ आ प समयेसाधिकं ।
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