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________________ -८.८२] अष्टमो विभागः [ १५७ उक्तं च [त्रि सा. १९८-२००]पमिदे दसणउदीवाससहस्साउगं जहण्णिदरं'। तो णउदिलक्खजेठं असंखपुष्वाण कोडी य॥१० १०००० । ९००००। ९००००००। सायरदसमं तुरिये , सगसगचरिमिंदयम्मि इगि १ तिणि ३।। सत्त ७ दसं १० सत्तरसं १७ उवही बावीस २२ तेत्तीसं ३३ ॥११॥ आदीअंतविसेसे रूऊणद्धाहिदम्मि हाणिचयं । उवरिमजेठं२ समयेणहियं हेट्ठिमजहण्णं तु ॥ १२ ___ सा ।।। ।। । श्वादीनां कोशतोऽत्यर्थ दुर्गन्धाशुचिमृत्तिकाम् । आहारन्त्यचिरेणाल्पां प्रथमाजातनारकाः॥८२ प्रथम इन्द्रक बिलमें जघन्य आयु दस हजार (१००००) वर्ष और उत्कृष्ट नब्बै हजार (९००००) वर्ष प्रमाण है। उसके आगे द्वितीय (नरक) इन्द्रक बिलमें नब्बै लाख (९००००००) वर्ष और तृतीय (रौरुक) इन्द्रक बिलमें असंख्यात पूर्वकोटि प्रमाण उत्कृष्ट आयु है ॥ १० ॥ चतुर्थ इन्द्रक बिलमें नारकियोंकी उत्कृष्ट आयु एक सागरोपमके दसवें भाग (१०) प्रमाण है। प्रथमादिक पृथिवियोंमें अपने अपने अन्तिम इन्द्रक बिल में यथाक्रमसे एक, तीन, सात, दस, सत्तरह, बाईस और तेतीस सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट आयु है-प्रथम पृथिवीके अन्तिम इन्द्रकमें १ सा., द्वि. पृ. के ३ सा., तृ. पृ. के ७ सा., च. पृ. के १० सा., पं. पृ. के १७ सा., छठी पृ. के २२ सा. और स. पृ. के अन्तिम इन्द्रकमें ३३ सा. है ।।११।। अन्तमेंसे आदिको घटाकर जो शेष रहे उसमें एक कम अपनी इन्द्रकसंख्याका भाग देनेपर विवक्षित पृथिवीमें उसकी हानि-वृद्धिका प्रमाण होता है । नीचेके इन्द्रकमें उत्कृष्ट आयुका जो प्रमाण है उसमें एक समय मिला देनेसे वह आगेके इन्द्रकमें उत्कृष्ट आयुका प्रमाण होता है ।। १२ ।। उदाहरण- प्रथम पृथिवीके चतुर्थ इन्द्रकमें प. सा. और उसके अन्तिम (१३वें) इन्द्रकमें १ सा. मात्र उत्कृष्ट आयु है । अत एव उपर्युक्त नियमानुसार यहां हानि-वृद्धिका प्रमाण इतना प्राप्त होता है-१- ९ (४ इं. बिलोंमें आयुका प्रमाण ऊपर बतलाया जा चुका है) रहा. वृ. । इसे उत्तरोत्तर मिलाते जानेसे आगे पांचवें आदि इन्द्रक बिलोंकी उत्कृष्ट आयुका प्रमाण इस प्रकार प्राप्त होता है- पांचवें इन्द्रमें २ सा., छठे इ. ३. सा., सातवें में सा., आठवें 5 सा., नौवें सा., दसवें % सा., ग्यारहवें सा., बारहवें , तेरहवें इन्द्रकमें १०=१ सा.। द्वि. पृथिवीमें ११ इन्द्रक बिल हैं। इनमें से उत्कृष्ट आयु प्रथममें १३ और अन्तिममें ३३ सा. है । अत एव ३३-२३ : (११-१)= अथवा - २, तृ. पृ. में ५-३= ; च. पृ. में १- ३; पं. पृ. में १५८१०=६; ष. पृ. में २२:१७ = 3; स. पू. में ३३,२२ = सा. हानि-वृद्धि। __ प्रथम पृथिवीमें उत्पन्न हुए नारकी कुत्ते आदिके सड़े-गले शरीरकी अपेक्षा भी अत्यन्त १ आ प जहंणिधरं । २ प उरि' । ३ आ प कोथतो' । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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