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________________ -८.७२] अष्टमो विभागः [१५५ निसृष्टातिनिसृष्टा च निरोधा चाञ्जनादिका।महानिरोधा चारायाश्चत्वारो दिक्षु संस्थिताः॥६३ निरुद्धातिनिरुद्धा च तृतीया तु विमर्दना । महाविमर्दना चेति तमकायाश्चतुर्दिशम् ॥ ६४ नीला नाम्ना महा नीला पङका च मघवीगताः । महापड़का च बोद्धव्या हिमाह्वस्य चतुर्दिशम् ॥६५ उष्ट्रिकाकुस्थली'कुम्भीमोदलीमुद्गरैः समाः । मृदङगनालिकातुल्या निगोदा अवनित्रये ॥ ६६ गोहस्तिहयबस्तश्च समा अष्टघटेन च । द्रोण्यम्बरीषश्च समा च[श्च ]तुर्थी-पञ्चमीगताः ॥६७ मल्लरीमल्लकसमाः किलिञ्जप्रच्छिखोपमा२: । केदारमसुराकारा निगोदा अन्त्ययोरपि ॥६८ श्वशगालवृकव्याघ्रद्वीपिकोकःगर्दभः । गोव्यजोष्ट्रेश्च सदृशा निगोदा जन्मभूमयः ॥ ६९ एक द्वे त्रीणि विस्तीर्णा गव्यूतिर्योजनान्यपि । शतयोजनविस्तारा उत्कृष्टास्तेषु वणिताः ॥ ७० ज को ५ । म १०।१५। उच्छिताः पञ्चगुणितं विस्तारं च पृथग्विधाः। सप्तत्रिद्वयककोणाश्च पञ्चकोणाश्च भाषिताः॥७१ त्रिद्वाराश्च त्रिकोणाश्च ऐन्द्रका इतरेषु तु । सप्तत्रिपञ्चद्ववेकानि द्वारि३ कोणांश्च निदिशेत्॥७२ दिशाओंमें स्थित हैं ।। ६२ ।। निसृष्टा, अतिनिसृष्टा, निरोधा और महानिरोधा ये चार श्रेणीबद्ध बिल अंजना पृथिवीके प्रथम आरा इन्द्रक बिलकी चार दिशाओंमें स्थित हैं। ६३॥ निरुद्धा अतिनिरुद्धा, तृतीय विमर्दना और चतुर्थ महाविमर्दना ये चार श्रेणीबद्ध बिल तमका ( पांचवीं पृथिवीका प्रथम इन्द्रक) की चारों दिशाओंमें स्थित है ।। ६४ ।। नीला, महानीला, पंका और महापंका नामके चार श्रेणीबद्ध बिल मघवी पृथिवीके हिम नामक प्रथम इन्द्रककी चारों दिशाओंमें स्थित जानने चाहिये ।। ६५ ।। [काल, महाकाल, रौरव और महारौरव ये चार श्रेणीबद्ध बिल माधवी पृथिवीके अवधिष्ठान इन्द्रक बिलकी चार दिशाओंमें स्थित है । ] धर्मा आदिक प्रथम तीन पृथिवियोंमें स्थित जन्मभूमियां उष्ट्रिका, कुस्थली, कुम्भी, मोदली और मुद्गरके समान तथा मृदंगनालिकाके समान आकारवाली हैं ॥ ६६ ॥ चौथी और पांचवीं पृथिवीमें स्थित वे जन्मभूमियां गाय, हाथी, घोड़ा, बस्त (भस्त्रा), अष्टघट (?), द्रोणी और अम्बरीषके समान आकारवाली हैं ।। ६७ ॥ अन्तिम दो पृथिवियोंमें स्थित जन्मभूमियां झल्लरी, मल्लक, किलिंज, प्रच्छिख ( पत्थी ), केदार और मसूरके समान आकारवाली तथा कुत्ता, शृगाल, वृक, व्याघ्र, द्वीपी, कोक, ऋक्ष, गर्दभ, गौ, अज और उष्ट्रके सदृश आकारवाली हैं ॥ ६८-६९॥ इन जन्मभूमियोंका विस्तार एक, दो और तीन कोस तथा इतने योजनों प्रमाण भी है। उनमें उत्कृष्ट जन्मभूमियां सौ योजन विस्तृत कही गई हैं-जघन्य जन्मभूमि ५ कोस और मध्यम १०-१५ कोस विस्तृत हैं (?) ॥ ७० ॥ उनकी ऊंचाई अपने विस्तारकी अपेक्षा पांच गुणी है । ये जन्मभूमियां सात, तीन, दो, एक और पांच कोनोंवाली कही गई हैं ।।७१॥ इन्द्रक बिल सम्बन्धी वे जन्मभूमियां तीन द्वार व तीन कोनोंवाली कही गई हैं । किन्तु श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक बिलोंमें उनको सात, तीन, पांच, दो, और एक द्वारों तथा इतने ही कोनोंवाली कहना चाहिये।।७२।। १ आप कुत्थली । २५ प्रच्छिरषोपमाः । ३ व 'त्रिद्वयकपंचानि द्वारि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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