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________________ -८.५४] अष्टमो विभागः [१५१ एकनवतिसहस्राणि योजनानि तु षछतम् । षट्षष्टिश्च समाख्याता त्रिभागौ वृद्धिरेव च ॥ ४९ सीमन्त कस्य दिक्षु स्युः पञ्चाशदूपर्वाजताः। विदिक्षु पुनरेकोना निरयाः समवस्थिताः॥ ५० ४९ । ४८ । द्वितीयप्रतरोऽष्टोन एवमष्टोनकाः१ क्रमात् । सर्वेऽपि प्रतरा ज्ञेया यावदन्त्यो भवेदिति ॥ ५१ एकेन हीनगच्छश्च दलितश्चयताडितः । सादिर्गच्छहतश्चैव सर्वसंकलितं भवेत् ॥ ५२ षट्छतानि त्रिपञ्चाशत् सहस्राणि नवैव च । आवल्या तु स्थिता ज्ञेया निरयाः सर्वभूमिषु ॥ ५३ शतान्येकान पञ्चाशच्चत्वारिंशन्नवोत्तरा । दिकस्थिता निरयाः एते गणिताः सर्वभूमिषु ॥५४ १२ वृद्धि ] होती गई है ।। ४८ ।। इस हानि वृद्धिका प्रमाण इक्यानबे हजार छह सौ छयासठ योजन और एक योजनके तीन भागोंमें से दो भाग मात्र कहा गया है- ११०००० =९१६६६३ ॥४९।। उदाहरण- प्रथम सीमन्तक इन्द्रकका विस्तार ४५००००० और अन्तिम अप्रतिष्ठान इन्द्र का विस्तार १००००० योजन है । अत एव उन नियमानुसार हानि-वृद्धिका पूर्वोक्त प्रमाण इस प्रकार प्रान होता है-(४५०००००-१०००००) :(४१-१)=११९२००० =९१६६६३ योजन । अब यदि आप २५वें इन्द्रकके विस्तारको जानना चाहते हैं तो एक कम अभीष्ट इन्द्रककी संख्या (२५ -१) से इस हानि-वृद्धिके प्रमाणको गुणित करके जो प्राप्त हो उसे प्रथम इन्द्रकके विस्तारमेंसे कम कर दीजिये अथवा अन्तिम इन्द्रकके विस्तारमें जोड़ दीजिये । इस रीतिसे २५वें इन्द्रकका विस्तार इतना प्राप्त हो जाता है । ४५०००००-४११०००००x (२५-१)} == २३०००००; अथवा {११०२००४ (२५-१)} +१०००००=२३०००००; योजन । सीमन्तक इन्द्रककी चारों दिशाओंमेंसे प्रत्येक दिशामें एक कम पचास (४९) तथा विदिशाओंमें इससे एक कम (४८-४८) नारक बिल अवस्थित हैं ॥ ५० ॥ द्वितीय प्रतरके आश्रित श्रेणीबद्ध बिल प्रथम की अपेक्षा [ प्रत्येक दिशा और विदिशामें एक एक कम होते जानेसे ] आठ कम हैं । इस प्रकार अन्तिम इन्द्रक तक सब इन्द्रकोंके आश्रित श्रेणीबद्ध बिल कपसे आठ आठ हीन होते गये हैं, ऐसा जानना चाहिये ।। ५१ ।।। एक कम गच्छको आधा करके चयसे गुणित करे। फिर उसमें आदि (मुख) को पिलाकर गच्छसे गुण न करनेपर सर्वसंकलित (सर्वधन) प्राप्त होता है । ५२ ।। उदाहरण- प्रकृतमें गच्छ ४९ चय ८ और आदि ४ है । अतएव उक्त नियमानुसार सातों पृथिवियोंके समस्त श्रेणीबद्ध बिलोंका प्रमाण इस प्रकार प्राप्त हो जाता है- (१६-१) X८+ ४४ ४९=९६०४... सब पृथिवियोंमें नौ हजार छह सौ तिरेपन बिल श्रेणीस्वरूपसे स्थित जानने चाहियेश्रेणीबद्ध ९६०४+ इन्द्रक ४१-९६५३ ।। ५३।। सब पृथिवियोंमें उनचास सौ उनचास (४९४९ नारक बिल पूर्वादिक दिशाओं में स्थित हैं- (१)४४+४४४९=४९०० श्रेणीबद्ध ; ४९०० १५ एकमप्टो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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