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________________ १५२] लोकविभागः [८.५५चत्वारि स्युः सहस्त्राणि पुनः सप्त शतानि च । चत्वारश्च विदिग्भाजः संख्याताः सर्वभूमिषु ॥५५ यशीतिनियुतानां च अयुतानि नवैव च । चत्वारिंशच्च सप्तामा त्रिशतं च प्रकीर्णकाः ॥ ५६ संख्यविस्तृता ज्ञेया सर्वेऽपीन्द्रकसंज्ञकाः । असंख्येयतता एव आवल्या निरयाः स्थिताः ॥ ५७ पुष्पप्रकीर्णकाख्यास्तु प्रायेणासंख्यविस्तृताः। संख्येयविस्तृताः स्तोका इति केवलिभाषिताः ॥ ५८ उक्तं च [त्रि. सा. १५३, १६३, १६५-६८, १७१-७२]तेरादिदुहीणिदय सेडीबद्धा दिसासु विदिसासु । उणवण्णडदालादी एक्केक्केणूणया कमसो॥ २ १३।११।९।७।५।३।१। वेकपदं चयगुणिदं भूमिम्मि मुहम्मि' रिणधणं च कए। मुहभूमीजोगदले पदगुणिवे पदधणं होदि ॥ +४९ इन्द्रक = ४९४९ ।। ५४॥ चार हजार सात सौ चार (४७०४) इतने नारक बिल सब भूमियोंके भीतर विदिशाओंमें स्थित बतलाये गये हैं ।। ५५ ।। विशेषार्थ- सातवीं पृथिवीमें अप्रतिष्ठान इन्द्रकके विदिशागत श्रेणीबद्ध नहीं हैं । अत एव गच्छका प्रमाण यहां ४८ होगा। (२)४४+४४४८ = ४७०४, ४९४९+४७०४ = ९६५३ समस्त इन्द्रक और श्रेणीबद्ध । तेरासी लाख नौ अयुत ( नौगुणित दस हजार ) अर्थात् नब्बे हजार तीन सौ सैंतालीस (८३९०३४७) इतने सब पृथिवियोंमें प्रकीर्णक बिल स्थित हैं- ८३९०३४७+ ९६५३=८४००००० समस्त नारक बिल ।। ५६ ।। सब इन्द्रक बिल संख्यात योजन विस्तारवाले जानना चाहिये । आवलीके रूप में स्थित अर्थात् श्रेणीबद्ध बिल सब असख्यात योजन विस्तारवाले ही हैं ।। ५७ ॥ पुष्पप्रकीर्णक नामक बिलोंमें अधिकांश असंख्यात योजन विस्तृत हैं। उनमें संख्यात योजन विस्तृत बिल थोड़ेसे ही हैं, ऐसा केवलियोंके द्वारा निर्दिष्ट किया गया है ॥५८॥ कहा भी है . इन्द्रक बिल प्रथमादिक पृथिवियोंमें यथाक्रमसे तेरहको आदि लेकर उत्तरोत्तर दो दो कम होते गये हैं (१३, ११, ९, ७, ५, ३, १)। श्रेणीबद्ध बिल दिशाओं और विदिशाओंमें क्रमसे उनचास और अड़तालीसको आदि लेकर उत्तरोत्तर एक एकसे कम होते गये हैं। अभिप्राय यह है कि वे प्रथम सीमन्तक इन्द्रक बिलकी पूर्वादिक चार दिशाओंमें उनचास उनचास (४९-४९) और विदिशाओंमें अड़तालीस अडतालीस (४८-४८) हैं। आगे द्वितीय आदि इन्द्रक बिलोंकी दिशाओं और विदिशाओंमें वे एक एक कम होते गये हैं ॥ २ ॥ एक कम गच्छको चयसे गुणित करनेपर जो प्राप्त हो उसे भूमिमें से कम करने और मुखमें जोड़ देनेपर क्रमसे भूमि और मुखका प्रमाण होता है। उस भूमि और मुखको जोड़ कर आधा करनेपर जो प्राप्त हो उसे गच्छसे गुणित करे । इस रीतिसे गच्छका समस्त धन प्राप्त हो जाता है ॥ ३ ॥ विशेषार्थ- उक्त नियमानुसार उदाहरणके रूपमें प्रथम पृथिवीमें स्थित समस्त श्रेणीबद्ध बिलोंका प्रमाण लाते हैं। प्रथम इन्द्रक बिलकी प्रत्येक दिशामें ४१ और विदिशामें ४८ श्रेणीबद्ध बिल हैं। अत एव इन दोनोंको मिलाकर ४ से गुणित करनेपर भूमिका प्रमाण १५ भूमिम्मुहम्मि । २ आ रिणदणं पणिरदणं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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