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________________ १५०) लोकविभागः (८.४१ एकसप्ततियुक्तानि शतानि त्रीणि दिग्गताः। दिशानि पुनस्त्रीणि शतानि स्युविदिग्गताः ॥४१ एकादश शतं ज्ञेयं सहस्राणां नवाहतम् । शते द्वे त्रिनवत्यग्रे चतुर्थ्यां च प्रकीर्णकाः ॥ ४२ चत्वारिंश छतं चैकं पञ्चाग्रा दिक्षु भाषिताः। विशमे शतं भूयः पञ्चम्यां च विदिग्गताः ॥ ४३ नवैव च सहस्राणि व्ययुतं नियुतत्रिकम् । शतानि सप्त त्रिशच्च पञ्चामात्र प्रकीर्णकाः ॥४४ विशन्नवोत्तरा दिक्षु षट्चतुष्का विदिग्गताः । नियुतं' त्वष्टवष्टयूनं षष्टयां पुष्पप्रकीर्णकाः॥४५ कालश्चैव महाकालो रौरवो महरौरवाः । पूर्वापरे दक्षिणतश्चोत्तरतः क्रमोदिताः ॥ ४६ अप्रतिष्ठानसंज्ञश्च मध्ये तेषां प्रतिष्ठितः । जम्बूद्वीपसमव्यासः पञ्चते सप्तमीस्थिताः ॥ ४७ उक्तं च [ ] - मनुष्यक्षेत्रमानः स्यात्प्रयमो जम्बूसमोऽन्तिमः । विशेचोभये व्येकेन्द्रकाप्ते हानिवृद्धि(?) च १ द्वादशाप्ताश्च लक्षागामेकादश चयो भवेत् । उपर्युपरि विस्तारे चेन्द्रकाणां ययाक्रमम् ॥ ४८ चतुर्य पृथिवीमें दिशागत श्रेणीबद्ध बिल तीन सौ इकतर ( ३७१ ) और विदिशागेत तीन सौ छतीस (३३६) हैं । वहां प्रकीर्णक बिल नौसे गुणित एक सौ ग्यारह हजार अर्थात् नौ लाख निन्यानबै हजार और दो सौ तैरानब ( ९९९२९३ ) जानना चाहिये ॥ ४१-४२ ।। पांचवीं पृथिवीमें दिशागत श्रेणीबद्ध बिल एक सौ पैंतालीस (१४५) और विदिशागत एक सौ बीस (१२०) कहे गये हैं। वहां प्रकीर्णक बिल दस हजारसे कम तीन लाख और नौ हजार सात सौ पैंतीस ( २९९७३५ ) हैं ॥४३-४४ ।। छठी पृथिवीमें दिशागत श्रेणीबद्ध बिल उनतालीस (३९) और विदिशागत छह चतुष्क अर्थात् चोबीस (२४) हैं। वहां प्रकीर्णक बिल 'इसठ कम एक लाख (९९९३२) हैं ॥ ४५ ॥ सातवीं पृथिवीमें काल, महाकाल, रौरव और महारौरव ये चार श्रेणीबद्ध बिल क्रमसे पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तरमें कहे गये हैं। उनके मध्यमें अप्रतिष्ठान नामका इन्द्रक बिल स्थित है । उसका विस्तार जम्बूद्वीपके बराबर (१००००० यो.) है। सातवीं पृथिवीमें ये ही पांच बिल स्थित है ॥४६-४७।। कहा भी है प्रथम इन्द्रकका विस्तार मनुष्यक्षेत्र (अढाई द्वीप) के बराबर और अन्तिम इन्द्रकका विस्तार जंबूद्वीपके बराबर है। इन दोनोंको परस्पर विशुद्ध करके अर्थात् प्रथम इन्द्रकके विस्तारमेंसे अन्तिम इन्द्रकके विस्तारको घटाकर शेषमें एक क न इन्द्रकसंख्याका भाग देनेपर हानिवृद्धिका प्रमाण प्राप्त होता है। यथा- (४५०००००-१०००००): (४९-१)=११६६६३ यो.; इतनी प्रथम इन्द्रककी अपेक्षा उन पटलोंके विस्तारमें उतरोत्तर हानि तथा अन्तिम इन्द्रककी अपेक्षा उत्तरोत्तर वृद्धि हुई है ।। १ ॥ ग्यारह लाखमें बारहका भाग देनेपर जो लब्ध हो उतनी (१९२०००) आगे आगे इन्द्रक बिलोंके विस्तारमें यथाक्रमसे [प्रथम इन्द्रककी अपेक्षा हानि और अन्तिम इन्द्रककी अपेक्षा १ आ प युतं । २ व विषये चोभये [विशोध्योभये ] ३ व्येकेन्द्राप्ते । ४ प द्वादशाप्ता च । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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