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________________ -८.२१॥ अष्टमी विमानः स्वप्रतररुन्द्रपिण्डेन ध्येकप्रतरहतेन' च । होनाः स्युर्वक्ष्यमाणाश्च प्रतरान्तरसंख्यकाः १८ प्रथमादिभूग्यन्तर संख्यायामृणं क्रमेण यो.१३।१३। ।३। । सार्धषट् च सहस्राणि आद्यायां प्रतरान्तरम् । त्रिसहस्रं परं तत्तु सार्धद्विशतसंयुतम् ।। १९ । ६५०० । [३०००।] ३२५०। षट्पष्टया षट्शतैर्युक्तं त्रिसहस्रं च साधिकम् । सार्धं चतुःसहस्रं स्यात्पञ्चम्यां प्रतरान्तरम् ।। २० । ३६६६ । ३ । ४५०० । सप्तव च सहस्राणि षठ्यां च प्रतरान्तरम् । चतुःसहस्र भूम्यर्धे सप्तम्यां प्रतरः स्थितः ॥ २१ स्थित है उसकी मुटाईका प्रमाण ८०००० यो. है । चूंकि इसके ऊपर और नीचे १०००-१००० योजनमें कोई भी पल नहीं है अतएव उसकी उक्त मुटाईमेंसे २००० योजन कम कर देनेपर शेष ७८००० योजन रहते हैं । इसके अतिरिक्त यहां जो १३ पटल स्थित हैं उनमेंसे प्रत्येकका बाहल्य एक कोस मात्र है । अत एव उनके समस्त बाहल्यका प्रमाण १३ कोस (३.यो.) होता है । इसको ७८००० योजनमेंसे कम करके शेषमें उसकी एक कम पलसंख्याका भाग दे देनेसे उन पटलोंके मध्य में जितना अन्तर है वह इस प्रकारसे प्राप्त हो जाता है-{{८००००-२०००) -(१x१३)} : (१३-१)=६४९९३४ यो.; प्रथम पृथिवीस्थ इन्द्रक बिलोंका अन्तर । {(८००००-२०००) - (tx१३)} : (१३-१) = ५३५१. = ६४९९३ ३ यो; प्रथम पथिवीस्थ श्रेणीबद्ध बिलोंका अन्तर । { (८००००-२०००) - (४१३) }: (१३-१) =९३५९४१ =६४९५३. यो.; प्रथम पृथिवीस्थ प्रकीर्णक बिलोंका अन्तर । आगे जो प्रथमादिक पृथिवियों में पटलोंके अन्तरका प्रमाण बतलाया जा रहा है वह एक कम अपनी पटलसंख्यासे भाजित अपने समस्त पटलोंके बाहल्यसे हीन समझना चाहिये । आगे कहे जाने वाले उन प्रथमादि पृथिवियोंके इस अन्तरप्रमाणमेंसे क्रमशः अपनी अपनी पृथिवीके समस्त पटलोंके बाहल्यको इस प्रकारसे कम करना चाहिये- प्र. पृ.१३, द्वि. पृ. ३३, तृ. पृ. , च. पृ. ३२, पं. पृ. २४, ष. पृ. २१. ।। १८ ।। पटलोंका यह अन्तर प्रथम पृथिवीमें साढ़े छह हजार (६५००) योजन, द्वितीय पृथिवीमें तीन हजार (३०००) योजन, तृतीय पृथिवीमें तीन हजार दो सौ पचास (३२५०) योजन, चतुर्थ पृथिवीमें तीन हजार छह सौ छयासठ (३६६६) योजनसे कुछ अधिक, पांचवीं पृथिवीमें साढ़े चार हजार (४५००) योजन और छठी पृथिवीमें सात हजार (७०००) योजन प्रमाण है । सातवीं पृथिवीकी मुटाई जो आठ हजार योजन है उसके अर्ध भागमें अर्थात् चार हजार (४०००) योजन नीचे जाकर ठीक मध्यमें एक ही पटल स्थित है ।। १९-२१ ।। उक्त सात पृथियोंमें स्थित उन पटलोंका अन्तर क्रमश: इस प्रकार हैप्रथम पृथिवीमें- { (८००००-२०००)- (x१३)}: ( १३-१)=६४९९२१ ६५००-१२ योजन। द्वितीय पृथिवीमें { (३२०००-२०००) - (३ x ११)} : (११-१) =२१९९४ =(३०००-३३१) यो. १ या प 'हतेन । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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