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________________ १४६] लोकविभागः [८.१२सप्त पञ्च च चत्वारि प्रणिधौ सप्तमावनेः । तिर्यग्लोकस्य पार्वे च पञ्च चत्वारि च त्रिकम् ॥१२ ।७। ५ । ४। सप्त पञ्च चतुष्कं च ब्रह्मलोकस्य पावके । प्रणिधावष्ट मावन्याः पञ्च चत्वारि च त्रयम् ॥ १३ लोकाग्रे कोशयुग्मं तु गपूतिन्यूनगोरुतम् । न्यूनप्रमाणं धनुषां पञ्चविंश-चतुःशतम् ॥ १४ ।२।१।१। आद्यायामवनौ सर्वे प्रतराः स्युस्त्रयोदश । विकद्विकोनाः शेषासु व्येकपञ्चाशदेव ते ॥ १५ ।१३।११।९।७।५।३।१। गम्यूतिरुन्द्राः प्रतराः प्रथमायामतः परम् । गव्यूत्यधोंत्तरा ज्ञेयाश्चान्त्या' योजनरुन्द्रकः ॥१६ स्वप्रतररुन्द्रपिण्डोना चैकका प्रतरस्थिता । रूपोनप्रतरभक्ता भूमिश्च प्रतरान्तरम् ॥ १७ बाहल पार्श्वभागोंमें मूलसे लेकर एक राजु मात्र ऊपर जाने तक है ॥११॥ उन वातवलयोंका बाहल्य सातवीं पृथिवीके प्रणिधिभागमें क्रमसे सात, पांच और चार (७, ५, ४) योजन तथा तिर्यग्लोकके पार्श्वभागमें पांच, चार और तीन (५. ४, ३) योजन प्रमाण है ।। १२ ।। उक्त वातवलयोंका ब्रह्मलोक (पांचवां कल्प) के पाश्वभागमें यथाक्रमसे सात, पांच और चार योजन तथा आठवीं पृथिवीके प्रणिधिभागमें पांच, चार और तीन योजन मात्र है ॥ १३ ॥ उन वातवलयोंका बाहल्य लोकशिखरपर क्रमसे दो (२) कोस, एक (१) कोस और एक (१) कोससे कुछ कम है । कुछ कमका प्रमाण यहां चार सौ पच्चीस (४२५) धनुष है । एक कोस =२००० धनुष; २०००-४२५=१५७५ धनुष ।। १४ ।। - प्रथम पृथिवीमें सब पटल तेरह (१३) हैं। शेष छह पृथिवियोंमें वे उत्तरोत्तर इनसे दो दो कम होते गये हैं (११, ९, ७, ५. ३, १) । वे सब पटल उनचास (४९) हैं ॥१५॥ प्रथम पृथिवीके पटलोंका इंद्र (बाहल्य) एक कोस मात्र है । आगे द्वितीय आदि पृथिवियोंमें वह उत्तरोत्तर आधा आधा कोस अधिक होता गया है । इस प्रकार अन्तिम पृथिवीके पटलका वह बाहल्य एक योजन प्रमाण हो गया है ।। १६ ।। विवक्षित प्रतरस्थित (जितनी मुटाईमें पटल सित हैं ) पृथिवीके बाहल्यप्रमाणमेंसे अपने पटलोंका जितना समस्त बाहल्य हो उसे कम करके जो शेष रहे उसमें विवक्षित पृथिवीकी एक कम प्रतरसंख्याका भाग देनेपर उन पटलोंके मध्यमें अवस्थित अन्तरालका प्रमाण प्राप्त होता है ।। १७ ।। विशेषार्थ- ऊपर प्रथमादिक पृथिवियोंमें जिन तेरह ग्यारह आदि पटलोंका अवस्थान बतलाया गया है उनके मध्य में कितना अन्तर है और वह किस प्रकार से प्रा त होता है, इसका उल्लेख करते हुए यहां यह बतलाया है कि विवक्षित पृथिवीमें जितने पटल स्थित हैं उन सबके समस्त बाहल्यप्रमाणको तथा पृथिवीके जितने भागमें उन पटलोंका अवस्थान नहीं है उसको भी कम करके शेषमें एक कम अपनी पटलसंख्याका भाग देनेसे जो लब्ध हो उतना उन पटलोंके मध्य में ऊर्व अन्तरालका प्रमाण होता है । जैसे- प्रथम पृथिवीके जिस अब्बहुल भागमें प्रथम नरक चांत्यो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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