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________________ १४४] लोकविभागः [७.९०चिह्न चूडामणिौलौ स्फटामकुटमेव च । गण्डश्च गजश्व मकरो वर्धमानकः ॥९० वन सिंहश्च कलशो मकुटं चाश्वचिह्नकम् । क्रमेण भावनेन्द्राणामथ चैत्यद्रुमा ध्वजाः ॥९१ प्रकृत्या प्रेम नास्त्येव शक्रस्य चमरस्य च । ईशानवैरोचनयोस्तथा प्रेमविपर्ययः ॥९२ भूतानन्दस्य वेणोश्च अक्षमा तु स्वभावतः । धारिणो' धरणस्यापि तथा प्रेमविपर्ययः ॥९३ सहस्रमवगाह्याधो व[वा]नान्तरसुरालयाः । आलोकान्ताद् गता वेद्या द्विसहस्रेऽल्पभावनाः ॥९४ ।१०००। द्विचत्वारिंशतं गत्वा सहस्राणामितः परम् । महद्धिभावना देवास्तत्र तिष्ठन्ति सर्वतः ॥ ९५ ।४२०००। योजनानामितो गत्वा नियुतं भावनालयाः । ततोऽतीत्य सहस्रं च तत्राद्या नरकालयाः ॥९६ ।१०००००। रत्नकूटकमध्यानि सर्वरत्नमयानि च । त्रिशतोच्चानि रम्याणि भवनान्येन्द्र काणि च ।। ९७ असुराणां गतिश्चोर्ध्वमैशानात्खलु कल्पत: । बिन्दुमात्रमिदं शेषं ग्राह्य लोकानुयोगतः ॥९८ ऋद्धिर्दिव्या संततरम्या भवनानामात्तः पुण्यर्हस्तगतैषा मनुजानाम् । एवं मत्वा साधु चरन्तश्चरितानि रम्यन्ते मत्तमयूरा इव तेषु ॥९९ इति लोकविभागे भवनवासिकलोकविभागो नाम सप्तमं प्रकरणं समाप्तम् ॥७॥ मुकुटमें चूडामणि, फणायुक्त मुकुट (सर्प), गरुड, हाथी, मगर, वर्धमानक, वज्र, सिंह, कलश और अश्वसे चिह्नित मुकुट ये क्रमसे उन भवनवासी इन्द्रोंके मुकुटमें चिह्न होते हैं। उनके चिह्न चैत्यवृक्ष या ध्वजायें होते हैं ।। ९०-९१ ॥ सौधर्म इन्द्र और चमरेन्द्र के परस्पर स्वभावसे ही प्रेम नहीं है। ईशानेन्द्र और वैरोचन इन्द्रके भी प्रेमविपर्यय अर्थात् परस्पर ईर्षाभाव होता है। भूतानन्द और वेण इन्द्रों के स्वभावसे विद्वेष होता है। उसी प्रकार वेणुधारी और धरणानन्द इन्द्रों में भी परस्पर प्रेमकी विपरीतता (विद्वेष) देखी जाती है ।। ९२-९३॥ चित्रा पृथिवीसे नीचे एक हजार (१०००) योजन जाकर लोक पर्यन्त व्यन्तर देवोंके आश्चर्यजनक भवन स्थित जानना चाहिये। अल्पद्धिक भवनवासी देवोंके भवन उससे दो हजार (२०००)योजन नीचे जाकर अवस्थित हैं ।।९४।। उससे व्यालीस हजार (४२०००) योजन नीचे जाकर वहां सब ओर महद्धिक भवनवासी देव स्थित हैं ॥ ९५ ।। इससे एक लाख (१०००००) योजन नीचे जाकर मध्यमद्धिक भवनवासी देवोंके भवन अवस्थित हैं । वहांसे एक हजार (१०००) योजन नीचे जाकर प्रथम नरकके नारकबिल हैं ।। ९६ ।। वे रमणीय ऐन्द्रक भवन मध्यमें रत्नमय कूटसे संयुक्त, सर्वरत्नोंसे निमित और तीन सौ (३००) योजन ऊंचे हैं ॥९७।। __ असुरकुमारोंका गमन ऊपर ऐशान स्वर्ग तक होता है । यह उपर्युक्त विवरण बिन्दु मात्र अर्थात् बहुत संक्षिप्त है । शेष कथन लोकानुयोगसे जानना चाहिये ।। ९८ ॥ निरन्तर रमणीय यह भवनवासी देवोंकी ऋद्धि मनुष्योंके लिये पूर्वप्राप्त पुण्यसे हस्तगत होती है, ऐसा समझकर साधु आचरण करनेवाले प्राणी उन भवनोंमें मत्त मयूरोंके समान बार बार रमते हैं । ९९ ॥ इस प्रकार लोकविभागमें भवनवासिक लोकविभाग नामका सातवां प्रकरण समाप्त हुआ ॥७ ।। १ब दारिणो। २५ धारिणस्यापि दरिणस्यापि । ३ आप 'मात्यैः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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