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________________ ७.८९ ] सप्तमी विभागः । [ १४३ सुपर्णानां च तत्स्थाने वर्षकोटिश्च जीवितम् । वर्षलक्षं च शेषाणां नियुतं नियुतार्धकम् ॥ ८० चमरेऽभ्यन्तरादीनां पारिषद्यदिवौकसाम् । सार्धद्विपत्यकं पत्यद्विकं सार्धंकपल्यकम् ॥ ८१ ३ । २। ३ । वैरोचने त्रिपल्यं च क्रमादर्धार्धहीनकम् । पत्याष्टमश्च नागानां तदधं स्यात्तदर्धकम् ॥ ८२ ३ । ३ । २ । १ । १६ ress पूर्वकोटीनां त्रयं द्वितयमेककस् । शेषेषु वर्षकोटीनां त्रिकं च द्विकमेककम् ॥ ८३ असुराणां तनूत्सेधश्चापानां पञ्चविंशतिः । शेषाणां च कुमाराणां दश दण्डा भवन्ति च ॥ ८४ इन्द्राणां भवनस्थानि अर्हदायतनानि च । विशतिनैषधैश्चैत्यैर्भाषितानि समानि च ।। ८५ अश्वत्थः सप्तपर्णश्च शाल्मलिश्च क्रमेण तु । जम्बूर्वेतसनामा च कदम्बप्रियकोऽपि च ॥ ८६ शिरीषश्च पलाशश्च कृतमालश्च पश्चिमः । असुरादिकुमाराणामेते स्युश्चैत्यपादपाः ॥ ८७ मूले च चैत्यवृक्षाणां प्रत्येकं च चतुदशम् । जिनाचः पञ्च राजन्ते पर्यङकासनमास्थिताः ॥ ८८ विशती रत्नसुस्तम्भाश्चत्यंस्ते समपीठिकाः । प्रत्येकं प्रतिमाः सप्त स्थितास्तेषु चतुर्गुणाः ॥ ८९ उक्तं च [ 1 ककुभं प्रति मूर्धस्थसप्ताहं द्विम्बशोभितः । तुङ्गा रत्नमया मानस्तम्भाः पञ्च दिशं प्रति ॥ ११ और एक करोड़ वर्ष प्रमाण होती है ।। ७९ ।। सुपर्णकुमार इन्द्रोंके उक्त देवोंकी आयु एक करोड़ वर्ष व एक लाख वर्ष तथा शेष इन्द्रोंके इन देवोंकी आयु एक लाख और अर्ध लाख वर्ष प्रमाण होती है ।। ८० ।। चमरेन्द्र के अभ्यन्तर आदि पारिषद देवोंकी आयु क्रमसे अढ़ाई पल्य, दो पत्य और डेढ़ पल्य (३, २, ३) प्रमाण होती है ॥ ८१ ॥ वैरोचन इन्द्रके उन देवोंकी आयु क्रमसे तीन पत्य, अढ़ाई पल्य और दो ( ३, ५, २) पल्य मात्र होती है । नागकुमारोंके इन देवोंकी आयु क्रमसे पत्यके आठवें भाग ( 2 ), इससे आधी (१६ पल्य) और उससे भी आधी (उरे पत्य ) होती है ॥ ८२ ॥ गरुडकुमारेन्द्रोंमें उक्त देवोंकी आयु क्रमसे तीन पूर्वकोटि, दो पूर्वकोटि और एक पूर्वकोटि मात्र होती है । शेष इन्द्रोंके इन देवोंकी आयु तीन करोड़ वर्ष दो करोड़ वर्ष और एक करोड़ वर्ष मात्र होती है ।। ८३ ॥ असुरकुमारों के शरीरकी ऊंचाई पच्चीस (२५) धनुष और शेष कुमार देवोंके शरीरकी ऊंचाई दस (१०) धनुष मात्र होती है ॥ ८४ ॥ इन्द्रोंके भवनों में स्थित जिनभवनोंकी संख्या बीस ( २० ) है । ये जिनभवन प्रमाण आदिमें निषधपर्वतस्थ जिनभवनोंके समान कहे गये हैं ।। ८५ । अश्वत्थ, सप्तपर्ण, शाल्मलि, जामुन, वेतस, कदम्ब, प्रियक ( प्रियंगु ), शिरीष, पलाश और अन्तिम कृतमाल ( राजद्रुम); ये यथाक्रमसे उन असुरकुमारादि भवनवासी देवोंके चैत्यवृक्ष हैं ।। ८६-८७ ।। इन चैत्यवृक्षोंमेंसे प्रत्येकके मूलमें चारों दिशाओंमेंसे प्रत्येक दिशामें पर्यंक आसन से स्थित पांच जिनप्रतिमायें विराजमान हैं ॥ ८८ ॥ वहां रत्नमय सुन्दर बीस स्तम्भ हैं । वे प्रतिमाओं के पीठके समान पीठसे संयुक्त हैं । उनमें से प्रत्येकके ऊपर चतुर्गुणित सात अर्थात् अट्ठाईस प्रतिमायें स्थित हैं । ८९ ।। कहा भी है - प्रत्येक दिशामें शिरके ऊपर स्थित सात जिनबिम्बोंसे शोभायमान रत्नमय पांच ऊंचे मानस्तम्भ हैं ॥। ११ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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