SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 196
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -७.७२ सप्तमो विभागः [१४१ गरुडानां षष्टिसंयुक्तं चत्वारिंशद्युतं पुनः । सविंशतिशतं परिषद्देवीनां च यथाक्रमम् ॥ ६३ १६०। १४० । १२० । चत्वारिंशद्युतं विशयुतं शुद्धं शतं भवेत् । द्वीपादीनां च शेषाणां परिषत्सुरयोषिताम् ॥ ६४ १४० । १२० । १००। सेनामहत्तराणां च देव्यश्चात्मरक्षिणाम् । पृथक् पृथक् शतं सेनासुराणां च तदर्धकम् ॥६५ प्रकीर्णकत्रयस्यापि जिनदृष्टप्रमाणकाः । देव्यः सर्वनिकृष्टानां द्वात्रिशदिति भाषिताः ।। ६६ प्रधानपरिवारा: स्युरिन्द्राणामिमे सुराः । अप्रधानपरीवाराः संख्यातीतान्यनिर्जराः ॥ ६७ सामानिकप्रतीन्द्रेषु भार्यास्त्रशाहकेषु च । विक्रियापरिवारधिस्थितयः पतिभिः समाः ॥ ६८ सर्वे कायप्रवीचारा इन्द्राः केवलयाज्ञया। छत्रसिंहासनाभ्यां च चामरैरपि चाधिकाः ॥ ६९ चमरे सागरायुः स्यात्पक्षादुच्छ्वसनं भवेत् । समासहस्रणाहारश्चान्यस्मिन्नधिकं त्रयम् ।। ७० भूतानन्दे त्रिपल्यायुर्धरणस्य तु साधिकम् । सुपर्णद्वीपसंज्ञानां द्विपल्यं सार्धसाधिकम् ॥७१ सार्धन द्वादशाह्वेन आहारश्चोपतिष्ठते । तावन्मुहूर्तरुच्छ्वासस्तेषां खल्वपि जायते ॥ ७२ चार (२००) मात्र हैं। उक्त देवियां नागेन्द्रोंके पारिषदोंके पूर्वोक्त क्रमसे दो सौ (२००), एक सौ साठ (१६०) और एक सौ चालीस (१४०) हैं ।। ६२ ॥ गरुडेन्द्रोंके पारिषदोंके वे देवियां यथाक्रमसे एक सौ साठ (१६०), एक सौ चालीस (१४०) और एक सौ बीस (१२०) हैं ॥६३ ।। शेष द्वीपकुमारेन्द्रादिकोंमें प्रत्येकके पारिषद देवोंके वे देवियां क्रमशः एक सौ चालीस (१४०), एक सौ बीस (१२०) और केवल सौ (१००) मात्र हैं ॥ ६४ ॥ वे देवियां सेनामहत्तरोंके और आत्मरक्षक देवोंके पृथक् पृथक् सौ (१००)तथा अनीक देवोंके उनसे आधी (५०) हैं ॥ ६५।। शेष प्रकीर्णक आदि तीन प्रकारके देवोंके जिन भगवान् के द्वारा देखी गई संख्या प्रमाण देवियां होती हैं [ अभिप्राय यह कि उनकी संख्याके प्रमाणका प्ररूपक उपदेश इस समय उपलब्ध नहीं हैं ] । सबसे निकृष्ट देवोंके बत्तीस (३२) देवियां कहीं गई हैं ।। ६६ ।। उपर्युक्त ये सामानिक आदि देव इन्द्रोंके प्रधान परिवारस्वरूप हैं । उनके अप्रधान परिवारस्वरूप अन्य देव असंख्यात हैं ।। ६७ ॥ सामानिक, प्रतीन्द्र और त्रायस्त्रिश नामक देवोंमें विक्रिया, परिवार, ऋद्धि और आयुस्थिति अपने अपने इन्द्रोंके समान होती हैं॥६८॥ ये सब देव कायप्रवीचारसे सहित हैं । इन्द्र उन सामानिक आदि देवोंकी अपेक्षा केवल आज्ञा, छत्र, सिंहासन और चामरोंसे अधिक होते हैं।। ६९।। चमरेन्द्रकी उत्कृष्ट आयु एक सागरोपम प्रमाण होती है। उसके पक्ष (१५ दिन) में एक वार उच्छ्वास और एक हजार वर्ष में आहारग्रहण होता है । वैरोचन इन्द्रकी आयु आदि उन तीनका प्रमाण चमरेन्द्रकी अपेक्षा कुछ अधिक होता है ॥ ७० ॥ भूतानन्दकी उत्कृष्ट आय तीन पल्योपम प्रमाण तथा धरणानन्दकी उससे कुछ अधिक होती है । सुपर्ण और द्वीपकुमारोंके इन्द्रोंकी वह आयु अढ़ाई (1) पल्योपम प्रमाण होती है। उनमें वेणुधारी और वशिष्ठकी आयु वेणु और पूर्ण इन्द्रसे कुछ अधिक होती है ॥ ७१॥ वे साढ़े बारह दिनमें आहार ग्रहण करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy