SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 195
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४०] लोकविभागः [७.५२ प्रकीर्णकादिसंख्यानं सर्वेष्विन्द्रेषु यद्भवेत् । तत्संख्यानोपदेशश्च नष्टः कालवशादिह ॥५२ षट्पञ्चाशत्सहस्राणि चमरस्य वरस्त्रियः। षोडशात्र सहस्राणि तस्य वल्लमिका मताः ॥ ५३ कृष्णा सुमेघनामा च सुकाख्या च सुकाढ्यया। रत्निका च महादेव्यः पञ्चैताश्चमरस्य च ॥५४ एकोनाष्टसहस्राणि पृथक् ताश्च विकुर्वते । वैरोचनस्य चेन्द्रस्य तया तावत्य एव च ॥ ५५ पद्मदेवी महापद्मा पद्मश्रीः कनकश्रिया। युक्ता कनकमाला च महादेव्योऽस्य पञ्च च ॥ ५६ नागानां च सहस्राणि पञ्चाशत्प्रवरस्त्रियः । दश तासु सहस्राणि मता वल्लभिकाङ्गनाः ॥ ५७ सुपर्णानां सहस्राणां चत्वारिंशच्चतुर्युता ।योषितस्तासु चत्वारि सहस्राणि प्रियाङ्गनाः॥५८ द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशत्सहस्राणि च योषिताम् । शेषाणां च सहस्र द्वे द्वेऽत्र वल्लभिकाङ्गनाः ॥ ५९ पञ्च पञ्चाग्रदेव्यश्च विक्रियाः पूर्ववन्मताः । शेषाणां च रूपोनषट्सहस्रं विकुर्वते ॥ ६० पञ्च चत्वारि च त्रीणि पञ्चाशघ्नानि योषिताम् । चमरे पारिषद्यानामासनादिक्रमाच्च ताः ॥६१ ।२५०।२००।१५०।। पञ्चाशद्ध्नानि षट् पञ्च चत्वार्येवं परस्य च । नागानां द्विशतं षष्टि-चत्वारिंशद्युतं शतम् ॥६२ ३०० । २५० । २०० । २०० । १६० । १४०। सब इन्द्रों में प्रकीर्णक आदि देवोंकी जितनी संख्या है उस संख्याका उपदेश कालवश यहां नष्ट हो चुका है ।। ५२ ।। चमरेन्द्रके छप्पन हजार (५६०००) उत्तम देवियां होती हैं । इनमेंसे सोलह हजार उसकी वल्लभायें मानी गई हैं ।। ५३ ।। कृष्णा, सुमेघा, सुका, सुकाढया और रत्निका ये पांच चमरेन्द्रकी महादेवी मानी गई हैं ।। ५४ ।। वे देवियां एक कम आठ हजार (७९९९) रूपोंकी पथक् विक्रिया करती हैं। उतनी (५६०००) ही देवियां वैरोचन इन्द्रके भी हैं ॥५५॥ इस वैरोचन इन्द्रकी पांच महादेवियोंके नाम ये हैं- पद्मादेवी, महापद्मा, पद्मश्री, कनकश्री और कनकमाला ।। ५६ ॥ नागकुमारोंके इन्द्रों (भूतानन्द और धरणानन्द) के पचास हजार (५००००) उत्तम देवांगनायें हैं, उनमें दस हजार (१००००) देवियां वल्लभा मानी गई हैं ॥ ५७ ।। सुपर्णकुमारेन्द्रों (वेणु और वेणुघारी) के चवालीस हजार (४४०००) देवांगनायें हैं, उनमें चार हजार (४०००) वल्लभायें हैं ।। ५८ ॥ शेष (पूर्ण और वशिष्ठ आदि) इन्द्रोंके बत्तीस हजार बत्तीस हजार (३२०००-३२०००) देवांगनायें हैं, इनमें से दो दो हजार (२०००-२०००) वल्लभायें हैं ।। ५९ ।। शेष इन्द्रोंके विक्रियाको करनेवाली अग्रदेवियां पूर्वके समान पांच पांच मानी गई हैं वे एक कम छह हजार (५९९९) रूपोंकी विक्रिया करती हैं ॥६० ॥ वे देवियां चमरेन्द्र के पारिषद देवोंके अभ्यन्तर परिषद् आदिके क्रमसे पचाससे गणित पांच, चार और तीन अर्थात् अढाई सौ (५०४५=२५०), दो सौ (५०४४) और डेढ सौ (५०४३) हैं— अभ्यन्तर पारिषद २५०, मध्यम पा. २००, बाह्य पा. १५० ॥६१॥ वे देवियां द्वितीय वैरोचन इन्द्रके पारिषदोंके यथाक्रमसे पचास गुणित छह (३००), पांच (२५०) और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy