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________________ लोकविभानः कूडुरि जिणमेहा अकट्टिमा पउमरायमणिकलसा। चउगोउरमणिसालतिवणधयमाला विरवति । चतुरस्राणि भास्वन्ति रत्नरुन्मिषितानि च । घ्राणानन्दनगन्धानि नित्योद्योतशुभानि च ॥१९ सुगन्धकुसुमाच्छन्नरत्नभूम्युज्ज्वलानि च । अवलम्बितधामानि धूपस्रोतोवहानि च ॥२० तुरुष्कागरुगोशीर्षपत्रकुडकुमगन्धितः। उपस्थानसभाहर्म्यवासगेहैर्युतानि च ॥ २१ शब्दरूपरसस्पर्शगन्धैदिव्यमनोहरैः । भवनान्यतिपूर्णानि' भोगैनित्यमनःप्रियः ॥ २२ अमलान्यरजस्कानि वरशय्यासनानि च । श्लक्ष्णानि नयनेष्टानि इहात्यनुपमानि च ॥२३ रत्नाभरणदीप्ताङ्गाः संततानङ्गसंगिनः । अङ्गनाभिर्वराङ्गाभिर्मोदन्ते तेषु भावनाः ॥ २४ तत्राष्टगुणमैश्वर्यं स्वपूर्वतपसः फलम् । अव्याकुलमतिश्लाघ्यं प्राप्नुवन्त्यन्यदुर्लभम् ॥२५ असुरेन्द्रो हि चमरस्रतो वैरोचनोऽपि च । भूतानन्दश्च नागानां धरणानन्द एव च ॥२६ वेणुदेवः सुपर्णानां वेणुधारी च नामतः । पूर्ण इन्द्रो वशिष्ठश्च द्वीपनाम्नां च भाषितः ॥२७ जलप्रभः समुद्राणां जलकान्तश्च देवराट् । स्तनितानां पतिर्घोषो महाघोषश्च नामतः ॥२८ विद्युतां हरिषेणश्च हरिकान्तश्च भाषितौ। दिशां चामितगत्याख्यो नाम्ना चामितवाहनः ॥२९ अग्नीन्द्रोऽग्निशिखो नाम्ना अग्निवाहन इत्यपि । वलम्बो नाम वातानां द्वितीयश्च प्रभञ्जनः ॥३० कूटोंके ऊपर पद्मराग मणिमय कलशोंसे सुशोभित, तथा चार गोपुर, तीन मणिमय प्राकार, वन, ध्वजाओं एवं मालाओंसे संयुक्त जिनगृह विराजते हैं ॥२॥ भवनवासी देवोंके वे भवन चतुष्कोण, रत्नोंसे प्रकाशमान, विकसित, घ्राणेन्द्रियको आनन्दित करनेवाले गन्धसे संयुक्त, नित्य उद्योतसे शुभ ; सुगन्धित कुसुमोंसे व्याप्त ऐसी रत्नमय भूमियोंसे उज्ज्वल, तेजका अवलम्बन करनेवाले, धूपके प्रवाहको धारण करनेवाले ; तुरुष्क (लोभान), अगरु, गोशीर्ष, पत्र एवं कुंकुमसे सुवासित ऐसे उपस्थानों, सभाभवनों एवं वासगृहोंसे संयुक्त तथा दिव्य व मनोहर ऐसे शब्द, रूप, रस, स्पर्श और गन्धसे एवं नित्य ही मनको मुदित करनेवाले भोगोंसे परिपूर्ण हैं ।। १९-२२॥ इन भवनोंमें निर्मल, धूलिसे रहित, चिक्कण एवं नेत्रोंको सन्तुष्ट करनेवाली सर्वोत्कृष्ट शय्यायें और आसन सुशोभित हैं ।। २३॥ उन भवनोंमें रत्नमय आभरणोंसे विभूषित शरीरसे संयुक्त और निरन्तर काममें आसक्त रहनेवाले वे भवनवासी देव सुन्दर शरीरवाली देवांगनाओंके साथ आनन्दको प्राप्त होते हैं ॥ २४ ।। वहांपर वे देव अपने पूर्वकृत तपके प्रभावसे उत्पन्न, निराकुल, अतिशय प्रशंसनीय और दूसरोंको दुर्लभ ऐसे अणिमा-महिमादि रूप आठ प्रकारके ऐश्वर्यको प्राप्त होते हैं ।। २५॥ इनमें असुरकुमारोंके इन्द्र चमर और वैरोचन, नागकुमारोंके भूतानन्द और धरणानन्द, सुपर्णकुमारोंके वेणुदेव और वेणुधारी, द्वीपकुमारोंके पूर्ण और वशिष्ठ इन्द्र, उदधिकुमारोंके जलप्रभ और जलकान्त इन्द्र, स्तनितकुमारोंके अधिपति घोष और महाघोष, विद्यत्कुमारों के हरिषेण और हरिकान्त, दिक्कुमारोंके अमितगति और अमितवाहन, अग्निकुमारोंके अग्निशिख और अग्निवाहन तथा वातकुमारोंके वैलम्ब और दूसरा प्रभंजन; इस प्रकार उन दस प्रकारके १५ व पूर्वानि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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