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________________ -७.१८ सप्तमो विभागः [१३५ सहस्रष्टसप्तत्या युक्तलक्षकरुन्द्रके' । मध्ये रत्नप्रभायां स्युर्भावना भवनालया ॥११ ।१७८०००। असुरा नागनामानः सुपर्णा द्वीपसंज्ञकाः । समुद्रास्तनिता विद्युद्दिगग्निपवनाह्वकाः ॥ १२ भावना दशधा देवाः कुमारोत्तरनामकाः । भवनानां तु संख्यानं शास्त्रदृष्टं निशम्यताम् ॥ १३ नियुतानां चतुःषष्टिरसुराणामुदाहृता । भवनान्यथ नागानामशीतिश्चतुरुत्तरा ॥१४ । ६४०००००। [८४०००००] । द्विसप्ततिः सुपर्णानां नियुतानां च लक्षयेत् । नवतिः षट् च वातानां संख्यया भवनानि तु ॥ १५ [७२०००००] । ९६०००००। शेषषण्णां च लक्षाणि प्रत्येकं षट् च सप्ततिः । सप्तकोटयो द्विसप्ततिनियुताः सर्वसंग्रहः ॥ १६ । ७६००००० । [७७२०००००] । तावत्प्रमा जिनेन्द्राणामालयाः शुभदर्शनाः । सदा रत्नमया भान्ति भव्यानां मुक्तिहेतवः ॥ १७ योजनासंख्यकोटीश्च विस्तृतानि हि कानिचित् । संख्येययोजनानीति दृष्टान्युक्तानि चाहता ॥१८ उक्तं च द्वयम् [त्रि. सा. २२०, .......]-- जोयणसंखासंखाकोडी तश्वित्थडं तु चउरस्सा। तिसयं बहलं मज्झं पडि सयतुंगेक्ककूडं च ॥१ हजार सहित एक लाख (१७८०००) योजन विस्तार युक्त रत्नप्रभा पृथिवीके मध्य भागमें भवनवासियोंके भवन हैं ।। ११॥ असुरकुमार, नागकुमार, सुपर्णकुमार, दीपकुमार, उदधिकुमार, स्तनितकुमार, विद्युत्कुमार, दिवकुमार, अग्निकुमार और पवन (वात) कुमार; ये दस प्रकारके भवनवासी देव हैं। इन सबके नामोंके आगे 'कुमार' शब्दका प्रयोग किया जाता है। उनके भवनोंकी जो संख्या शास्त्रमें देखी गई है उसे सुनिये ।। १२-१३ ।। ये भवन असुरकुमारोंके चौंसठ (६४) लाख, नागकुमारोंके चौरासी (८४) लाख, सुपर्णकुमारोंके बहत्तर (७२) लाख, वात कुमारोंके छयानबै (९६) लाख, तथा शेष छह कुमारोंके वे छ्यत्तर (७६) लाख कहे गये हैं । इन सबकी समस्त संख्याका प्रमाण सात करोड़ बहत्तर लाख (७७२०००००) है ॥ १४-१६ ।। इन भवनों में उतने ही रत्नमय जिनेन्द्र देवोंके आलय (जिनभवन) सदा शोभायमान रहते हैं। उनका दर्शन पुण्यबन्धक है। ये जिनभवन भव्य जीवोंके लिये मुक्तिप्राप्ति के कारण हैं ।। १७॥ उनमें कितने ही भवन असंख्यात करोड़ योजन तथा कितने ही संख्यात योजन विस्तृत हैं, यह विस्तार अर्हन्त भगवान्के द्वारा प्रत्यक्ष देखकर कहा गया है ।। १८॥ यहां दो गाथायें कही गई हैं--- उनका विस्तार जघन्यसे संख्यात करोड़ योजन और उत्कर्षसे असंख्यात करोड़ योजन है। आकारमें वे समचतुष्कोण हैं। उनका बाहल्य तीन सौ (३००) योजन मात्र है । इनमेंसे प्रत्येकके मध्य में एक सौ (१००) योजन ऊंचा एक एक कूट स्थित है [ जिसके ऊपर चैत्यालय विराजमान है ] ॥ १॥ १५ लक्षण । २ ब सुपर्णाणां तु लक्षयेत् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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