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________________ १३२] लोकविभागः [ ६.२२६ एका सहलाणि षट्छतान्यपि षोडश । द्वीपे द्वये तथार्धं च ग्रहाणां ' गणितं भवेत् ॥ २२६ । ११६१६ । अष्टाशीतिशतं चैकं सहस्रं चाल्पकेतवः । महान्तः केतवस्तेभ्यो द्विगुणा इति वर्णिताः ॥ २२७ । ११८८ । २३७६ । सहस्रं दशकेनोनं चन्द्रवीथ्यो रवेः पुनः । द्वादशैव सहस्राणि चाष्ट। दशगुणाष्टकम् ॥ २२८ । ९९० । १२१४४ । अष्टाशीतिश्च लक्षाणां चत्वारिंशत्सहस्रकम् । शतानि सप्त ताराणां कोटीकोटघो नरावनौ ।। २२९ । ८८४०७ । १६ । इन्दोरिनस्य शुक्रस्य वर्षाणां नियुतेन च । सहस्रेण शतेनायुः सह पल्यं क्रमाद्भवेत् ॥ २३० प १ व १००००० । प १ व १००० । प १ व १०० । गुरोरन्यग्रहस्यापि पल्यं पल्यस्य चार्धकम् । वरावरायुस्ताराणां पादः पादार्धकं भवेत् ।। २३१ प१ । ३ । प ।प१ । चन्द्राभा च सुसीमा च संज्ञया तु प्रभंकरा । देव्योऽचिमालिनी चेति चतस्रो मृगधरस्य च ।। २३२ द्युतिः सूर्यप्रभा चान्या तथा नाम्ना प्रभंकरा । देव्योऽचिमालिनी चेति चतस्रो भास्करस्य च॥२३३ चतस्रश्च सहस्राणां परिवारसुराङ्गनाः । तासां पृथक् पृथक् ताश्च विकुर्वन्ति च तत्प्रमाः ॥ २३४ २०१६–३६९६ ।। २२५ ।। अढाई द्वीपमें ग्रहों का प्रमाण ग्यारह हजार छह सौ सोलह है. जं. १७६+ल. ३५२+धा १०५६ + का. ३६९६+पु. ६३३६= ११६१६ ।। २२६ ।। अढ़ाई द्वीपमें एक हजार एक सौ अठासी (१९८८) अल्पकेतु और उनसे दूने २३७६ महाकेतु कहे गये हैं ।। २२७ ।। दस कम एक हजार ( ९९०) चन्द्रवीथियां तथा बारह हजार और आठगुणित अठारह अर्थात् एक सौ चवालीस ( १२१४४) सूर्यवीथियां हैं ।। २२८ ।। मनुष्यक्षेत्रमें अठासी लाख चालीस हजार सात सौ कोड़ाकोड़ी ( ८८४०७ शून्य १६) तारे हैं ।। २२९ ।। उत्कृष्ट आयु चन्द्रकी क्रमसे एक पल्य और एक लाख वर्ष, सूर्यकी एक पल्य और एक हजार वर्ष, तथा शुक्रकी एक पल्य और एक सौ वर्ष प्रमाण होती है— चन्द्र पल्य १ वर्ष १०००००, सूर्य पल्य १ वर्ष १०००, शुक्र पल्य १ वर्ष १०० ।। २३० ।। बृहस्पतिकी उत्कृष्ट आयु एक पल्य तथा अन्य बुध आदि ग्रहोंकी उत्कृष्ट आयु आधा पल्य प्रमाण होती है । ताराओंकी उत्कृष्ट आयु पाव पल्य और जघन्य आयु इसके अर्ध भाग प्रमाण होती है - बृह. १ पल्य, अन्य ग्रह है पल्य, तारा उ. आयु पल्य, जघन्य है पल्य ।। २३१ || चन्द्राभा, सुसीमा, प्रभंकरा और अचिमालिनी नामकी चार देवियां चन्द्रके होती हैं ॥ २३२ ॥ द्युति, सूर्यप्रभा, प्रभंकरा और अर्चिमालिनी नामकी चार देवियां सूर्य के होती हैं ।। २३३ ।। उनकी पृथक् पृथक् चार हजार परिवार देवियां होती हैं । वे प्रमुख देवियां उक्त परिवार देवियोंके प्रमाण (४००० ) १ प गृहाणां । २ ब गृहस्यापि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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