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________________ १३०] लोकविभागः [६.२१०देशोनबाणपर्वतपञ्चपञ्चप्रमाणकः । तत्प्रमा निषधे गत्वा चास्तं याति दिवाकरः ॥ २१० ।५५७५ । ऋणं । जम्बूचारधरोनी च हरिभूनिषधाशुगौ' । इह बाणौ पुनर्वृत्तमाद्यवीथ्याश्च विस्तृतिः ॥ २११ हरिभूगिरिकोदण्डविशेषाधं च नैषधः । पार्श्वबाहुः स देशोनषड्नवैकखदृकप्रमः ॥२१२ २०१९६ । ऋणं ५। हरिभूधनुराधे च मण्डले सप्तसप्तकम् । त्रिकत्रिकाष्टकं वेकविंशत्याश्च कला नव ॥२१३ ८३३७७। । आद्ये च निषधे मार्गे धनुरष्टौ षट्कसप्तकम् । त्रिदृयेक व्यकविंशत्याश्चाष्टादशकला भवेत् ॥२१४ __१२३७६८ [१६] मध्यमे मण्डले याति सर्ववास्येषु भास्करे। इषुपेषु च सर्वेषु तदा दिन-निशे समे ॥२१५ मण्डले बाहिरे याति सर्ववास्येषु भास्करे । द्वादशाह्नि मुहूर्ताः स्युनिशि चाष्टादशैव च ॥ २१६ ज्योतिषां भास्करादीनामपरस्यां मुखं दिशि । उत्तरं च भवेत् सव्यमपसव्यं च दक्षिणम् ॥ २१७ पांच हजार पांच सौ पचत्तर (२०१९६ - १४६२१ = ५५७५) योजन प्रमाण होता है। इतने प्रमाण निषध पर्वतके ऊपर जाकर वह सूर्य अस्त हो जाता है ॥ २०९-२१०॥ - जम्बूद्वीपके चारक्षेत्रसे रहित जो हरिवर्ष और निषध पर्वतके बाण हैं वे यहां चक्षुके स्पर्शक्षेत्रके लाने में बाण होते हैं। इनका जो वृत्त विस्तार है वह प्रथम वीथीका विस्तार (९९६४०) होता है ॥ २११॥ यथा- हरिवर्षका बाण ३१०९००; निषध पर्वतका बाण ६३९९००; जम्बूद्वीपका चारक्षेत्र १८० = ३६२०; ३१९९०० - ३६२° = ३०६५०० च. ह. व. बाण; ६३०९०० - ३४२° = ६२६५८० च. नि. प. बाण । ___ हरिवर्षके धनुषको निषध पर्वतके धनुषमेंसे कम करके शेषको आधा करनेपर जो प्राप्त हो वह निषध पर्वतकी पार्श्वभुजाका प्रमाण होता है। वह कुछ कम छह, नौ, एक, शून्य और दृष्टि अर्थात् दो इन अंकोंके बराबर है- (१२३७६८६६ - ८३३७७१६): २ = २०१९५१ = (२०१९६ - १३) ॥ २१२ ।। ___ प्रथम वीथी में हरिवर्षका धनुष सात, सात, तोन, तीन और आठ इन अंकोंके प्रमाण होकर उन्नीसमेंसे नौ कलाओंसे अधिक होता है -८३३७७६१ ।। २१३॥ प्रथम वीथीमें निषध पर्वतका धनुष आठ, छह, सात, तीन, दो और एक इन अंकोंके प्रमाण होकर एक अंकके उन्नीस भागोंमेंसे अठारह भागोंसे अधिक होता है - १२३७६८१६ ।। २१४॥ सूर्यके सब वीथियोंमेंसे मध्यम वीथीमें जानेपर सब क्षेत्रों और सब इषुपों (विषुपों) में दिन और रात बराबर अर्थात् पन्द्रह पन्द्रह मुहूर्त प्रमाण होते हैं ।। २१५ ।। सूर्यके सब वीथियों में से बाहय वीथीमें जानेपर सब क्षेत्रोंमें दिनमें बारह मुहूर्त और रात्रिमें अठारह मुहूर्त ही होते हैं ॥ २१६॥ सूर्य आदि सब ज्योतिषियोंका मुख पश्चिम दिशामें होता है। उनका वामभाग १ ब निषदाशुगौ । २ आ प 'राध्ये । ३ ब विंशत्या चाष्टा । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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