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-६.२०९] षष्ठले विभामः
[ १२९ उच्छ्वासानां सहस्राणि त्रीणि सप्त शतानि च । त्रिसप्ततिः पुनस्तेषां' मुहूर्तो हक इष्यते॥२०५
।३७७३। मण्डलेऽभ्यन्तरे याति सर्ववास्येषु भास्करे। अष्टादश मुहूर्ताः स्युस्तदाहो द्वादश क्षपा ॥२०६ षष्टयाप्तश्च परिक्षेपः प्रथमो नवताडितः । चक्षुस्पर्शनमार्गस्त्रिषद्विसप्तचतुःप्रमः ॥ २०७ साधिकेन च तेनोनं निषधस्य धनुर्दलम् । यन्मानमिदमेकद्विषट्चतुष्कैककं कलाः ॥२०८
। १४६२१ [४]। आगत्य निषधेऽयोध्यामध्यस्थैर्दृश्यते रविः । तेनोनो निषधस्याद्रेः पार्श्वबाहुश्च योऽस्ति सः ॥
जाता है ।। २०१-२०४ ॥ तीन हजार सात सौ तिहत्तर उच्छ्वासोंका एक मुहूर्त माना जाता है-- उच्छ्वास ७४७४३८३४२=३७७३ ॥ २०५॥
सूर्यके सब मण्डलोंमेंसे अभ्यन्तर मण्डलमें प्राप्त होनेपर उस समय दिनका प्रमाण सब क्षेत्रोंमें अठारह मुहूर्त और रात्रिका प्रमाण बारह मुहूर्त होता है ।। २०६ ।। प्रथम मण्डलको साठसे भाजित करके लब्धको नौसे गुणित करनेपर चक्षुके स्पर्शनका मार्ग अर्थात् चक्षु इन्द्रियके विषयभूत उत्कृष्ट क्षेत्रका प्रमाण प्राप्त होता है जो तीन, छह, दो, सात और चार अंक (४७२६३ यो.) प्रमाण है ॥ २०७॥
विशेषार्थ— जब सूर्य प्रथम वीथीमें प्राप्त होता है तब अयोध्या नगरीके भीतर अपने भवनके ऊपर स्थित चक्रवर्ती सूर्यविमानके भीतर स्थित जिनबिम्बका दर्शन करता है। वह सूर्य उक्त वीथी (३१५०८९ यो.) को ६० मुहूर्तमें पूर्ण करता है। जब चक्रवर्ती सूर्यविमानमें जिनबिम्बका दर्शन करता है तब वह निषध पर्वतके ऊपर उदयको प्राप्त होता है। उसको अयोध्याके ऊपर आने तक ९ मुहूर्त लगते हैं । अब जब वह ३१५०८९ योजन प्रमाण उस वीथीको ६० मुहूर्तमें पूर्ण करता है तब वह ९ मुहूर्तमें कितने क्षेत्रको पूरा करेगा, इस प्रकार त्रैराशिक करनेपर उपर्युक्त चक्षुके स्पर्शक्षेत्रका प्रमाण प्राप्त होता है। यथा- ३१५:४९x = ३१५२०९४३ = ४५२६७ = ४७२६३३० योजन ।
निषध पर्वतके धनुषका जो प्रमाण है उसको आधा करके उसमेंसे कुछ (५०) अधिक इस चक्षुके स्पर्शक्षेत्रको कम कर देनेपर जो प्रमाण होता है वह एक, दो, छह, चार और एक; इन अंकोंसे निर्मित संख्या (१४६२१) प्रमाण होकर [३] कलाओंसे अधिक होता है ॥२०८॥ जैसे - निषध पर्वतका धनुष १२३७६८१९; इसका आधा ६१८८४१२; ६१८८४१२ - ४७२६३३ = १४६२१३४.
निषध पर्वतके ऊपर इतने (१४६२१३१) योजन आकर सूर्य अयोध्या नगरीके मध्यमें स्थित महापुरुषोंके द्वारा देखा जाता है। इसको निषध पर्वतकी पार्श्वभुजामेंसे कम कर देनेपर जो शेष रहता है वह कुछ (1 ) कम बाण (५), पर्वत (७) पांच और पांच अर्थात्
१ ा प अतोऽग्रे ( सार्धाष्टा त्रिंशता घटी। घटीद्वयं मुहूर्तोत्र ) इत्ययं पाठः कोष्ठकस्थ अधिक उपलम्भते । २मा प 'क्षेपश्च प्रथमो। ३५सादिकेन । ४५ तेनोनं ।
डो.१७
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