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________________ १२६] लोकविभागः [६.१७५वैश्वस्य सिंहकुम्भाभाश्चतस्रस्तारकाः ध्रुवम् । अभिजिद् गजकुम्भास्तिस्रस्तस्य च तारकाः॥ मृदङ्गसदृशो दृष्ट श्रवणश्च त्रितारकाः । पञ्चतारा धनिष्ठाश्च पतत्पक्षिसमाश्च ताः ॥ १७६ एकादश शतं तारा वारुणा सैन्यवच्च ताः । पूर्वप्रोष्ठपदे तारे हस्तिपूर्वतनूपमे ॥ १७७ उत्तरे चोदिते तारे हस्तिनो परगात्रवत् । रेवती नौसमा तस्या द्वात्रिंशत्खलु तारकाः ॥ १७८ अश्विनी पञ्चतारा स्यान्मता साश्वशिरःसमा । भरण्योऽपि त्रिकास्ताराश्चुल्लीपाषाणसंस्थिताः ॥ सैकादशशतं चैकसहस्रं स्वस्वतारकाः। प्रमाणेनाहतं कृत्तिकादिताराप्रभा भवेत् ॥ १८० ६६६६ । ५५५५ । ३३३३ । ११११। ६६६६। ३३३३ । ६६६६ । ४४४४ । २२२२ । २२२२ । ५५५५ । ११११ । ११११ । ४४४४ । ६६६६। ३३३३ । ९९९९ । ४४४४ । ४४४४ । ३३३३ । ३३३३ । ५५५५ । १२३३२१ । २२२२ । २२२२। ३५५५२ । ५५५५ । ३३३३ । नवाभिजिन्मुखास्ताराः स्वातिः पूर्वोत्तरेति च । द्वादश प्रथमे मार्गे चरन्तीन्दोर्मता इति ॥ १८१ होता है, उसके चार तारा होते हैं । १७४ ।। वैश्व (उत्तराषाढा) नक्षत्रके सिंहकुम्भके समान निश्चयसे चार तारा होते हैं । अभिजित् हाथीके कुम्भके समान होता है, उसके भी चार तारा होते हैं ॥ १७५ ।। श्रवण नक्षत्र मृदंगके समान देखा गया है, उसके तीन तारा होते हैं। धनिष्ठाके पांच तारा होते हैं और वे गिरते हुए पक्षीके समान होते हैं ॥ १७६ ।। वारुणा (शतभिषा) नक्षत्रके एक सौ ग्यारह तारा होते हैं और वे सैन्यके समान होते हैं। पूर्व भाद्रपदाके दो तारा हाथीके पूर्व शरीरके सदृश होते हैं । १७७ ।। उत्तर भाद्रपदाके दो तारा हाथीके उत्तर शरीरके समान होते हैं। रेवती नक्षत्र नावके समान होता है, उसके निश्चयसे बत्तीस तारा होते हैं।। १७८ ।। अश्विनी नक्षत्र पांच ताराओंसे सहित होता है और वह घोड़ेके शिरके सदृश होता है। भरणी तीन ताराओंसे संयुक्त होता है, वे चूल्हेके पत्थरकी आकृतिके समान होते हैं । १७९॥ एक हजार एक सौ ग्यारहको अपने अपने ताराओंके प्रमाणसे गुणित करनेपर कृत्तिका आदिके ताराओंका प्रमाण होता है ॥ १८०॥ यथा- कृतिका ११११x६-६६६६, रोहिणी ११११४५५५५५, मृगशीर्षा ११११४३=३३३३, आर्द्रा ११११४१=११११, पुनर्वसु ११११४६=६६६६, पुष्य ११११४३=३३३३, आश्लेषा ११११४६=६६६६, मघा ११११ x४=४४४४, पूर्वा ११११४२-२२२२, उत्तरा ११११४२-२२२२, हस्त ११११४५ =५५५५, चित्रा ११११४१=११११, स्वाति ११११४१=११११, विशाखा ११११४४= ४४४४, अनुराधा ११११४६=६६६६, ज्येष्ठा ११११४३=३३३३, मूल ११११४९=९९९९ आप्य ११११४४-४४४४, वैश्व ११११४४=४४४४, अभिजित् ११११४३=३३३३, श्रवण ११११४३=३३३३, धनिष्ठा ११११४५=५५५५, वारुणा (शतभिषा) ११११४१११ =१२३३२१, पूर्वभाद्रपदा ११११४२=२२२२, उत्तरभाद्रपदा ११११४२=२२२२, रेवती ११११४३२=३५५५२, अश्विनी ११११४५=५५५५, भरणी ११११४३=३३३३. अभिजित् आदि नौ (अभिजित् श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा (वारुणा), पूर्वभाद्रपदा, उत्तरभाद्रपदा, रेवती, अश्विनी भरणी), स्वाति, पूर्वा और उत्तरा ये बारह नक्षत्र चन्द्रके प्रथम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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