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________________ १२२] लोकविभागः [६.१४७ एकाशीतिशतं रूपहीनावृत्तिगुणं भवेत् । सकविंशति शेषोश्विन्यादिभं' त्रिघनाप्तके ॥ १४७ त्र्यशीत्यधिकशतं रूपन्यूनावृत्तिगुणं पुनः । त्रिघ्नेन गुणकारेण सैकेन च संयुतम् ॥ १४८ विभक्ते पञ्चदशभिर्यल्लब्धं पर्व तद्भवेत् । तिथयश्चावशेषाः स्युर्वर्तमानायनर य च ॥ १४९ षण्मासार्धगतानां च ज्योतिप्काणां दिवानिशम् । समानं च भवेद्यत्र तं कालमिषुपं२ विदुः ॥१५० प्रथमं विषुवं चास्ति षट्स्वतीतेषु पर्वसु । तृतीयायां च रोहिण्यामित्याचार्याः प्रचक्षते ॥१५१ अतीतेषु द्वितीयं च अष्टादशसु पर्वसु । नवम्यां च भ्रविधिनिष्ठायां भवतीति निवेदितम् ॥१५२ एकत्रिंशत्यतीतेषु पर्वसु स्यात्तृतीयकम् । पञ्चदश्यां तिथौ चापि नक्षत्रे स्वातिनामके ॥ १५३ एक सौ इक्यासीको एक कम विवक्षित आवृत्तिसे गुणित करे । पश्चात् उसमें इकीस मिलाकर तीनके घन (३४३४३)का भाग देनेपर जो शेष रहे उतनेवां अश्विनीको आदि लेकर नक्षत्र होता है ।। १४७ ॥ - उदाहरण- जैसे यदि प्रथम आवृत्ति विवक्षित है तो एकमेंसे एकको घटानेपर शून्य शेष रहता हैं (१-१=०) । उसको १८१ से गुणित करनेपर शून्य ही प्राप्त होगा। पश्चात् उसमें इक्कीसको मिलाकर ३ के घन २७ का भाग देनेपर वह नहीं जाता है । तब २१ ही शेष रहते हैं। इस प्रकार प्रथम आवृत्तिमें अश्विनीसे लेकर २१वां नक्षत्र उत्तराषाढ़ा समझना चाहिये । यहां जो वह अभिजित् नक्षत्र बतलाया गया है वह सूक्ष्मतासे बतलाया गया है । एक सौ तेरासीको एक कम आवृत्तिसे गुणित करे । पश्चात् उसमें तिगुणा गुणाकार और एक मिलाकर पन्द्रहका भाग देनेपर जो लब्ध हो वह वर्तमान अयनके पर्व तथा शेष तिथियोंका प्रमाण होता है ।। १४८-१४९ ॥ उदाहरण-- जैसे यदि द्वितीय आवृत्तिकी विवक्षा है तो २ मेंसे १ को कम करनेपर १ शेष रहता है। उसको १८३ से गुणित करनेपर १८३ ही प्राप्त होते हैं । इसमें गुणकार १ के तिगुणे ३ को मिलानेपर १८३+३=१८६ हुए। उसमें १ अंक और जोड़कर १५ का भाग देनेपर १६६१ = लब्ध १२ और शेष ७ रहते हैं । इस प्रकार द्वितीय आवृत्तिमें १२ पर्व और सप्तमी तिथि प्राप्त होती है । पक्षके पूर्ण होनेपर जो पूर्णिमा और अमावस्या होती है उसका नाम पर्व है । यह द्वितीय आवृत्ति उत्तरायणका प्रारम्भ हो जानेपर प्रथम माघ मासमें कृष्ण पक्षकी सप्तमी तिथिके समय होती है । तब तक युगके प्रारम्भसे १२ पर्व वीत जाते हैं। इसी क्रमसे अन्य आवृत्तियोंमें भी पर्व और तिथिको समझना चाहिये। ___ ज्योतिषी देवोंके छह मास (अयन) के अर्ध भागको प्राप्त होनेपर जिस काल में दिन और रात्रिका प्रमाण बराबर होता है उस कालको विषुप कहा जाता है ।। १५० ।। छह पर्वोके वीत जानेपर तृतीया तिथिमें रोहिणी नक्षत्रके समय प्रथम विषुप होता है, ऐसा आचार्य कहते हैं ।। १५१ ।। अठारह पर्वोके वीतनेपर नवमीके दिन धनिष्ठा नक्षत्र में द्वितीय नक्षत्र होता है, ऐसा निर्दिष्ट किया गया है ।। १५२ ।। इकतीस पर्वोके वीत जानेपर पंचदशी (पूर्णिमा) तिथिको १५ "श्विन्मादिमं । २५ श्यशीति अधिक । ३ आ प 'मिषुषं । ४ ब सर्वसु। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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