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________________ -६.१४१] पठो विभागः [ १२१ सचतुःपञ्चमांशेषु मानोरभ्यन्तरे पथि । दक्षिणस्यायनस्यादिः प्रतिपच्छावणे भवेत् ॥ १३६ आषाढपौणिमास्यां तु युगनिःपत्तिश्च श्रावणे । प्रारम्भः प्रतिपच्चन्द्रयोगाभिजिदि कृष्णके ॥१३७ प्रथमान्तिमवीथिभ्यां दक्षिणस्योत्तरस्य च । प्रारम्भश्चायनस्यैव' स्यादावृत्तिरितीष्यते ॥ १३८ दक्षिणावृत्तिरेकादिद्विचयोत्तरगावृतिः । द्विकादिद्विचया गच्छ उभयत्रापि पञ्च च ॥ १३९ कृष्णे सौम्ये त्रयोदश्यां द्वितीयावृत्तिरिष्यते । शुक्ले विशाखया चैव तृतीया दशमीगता ॥ १४० सप्तम्यां खलु रेवत्यां चतुर्थी कृष्णपक्षगा । चतुर्थ्यां शुक्लपक्षे च भाग्ये भवति पञ्चमी ॥ १४१ दक्षिणे चायने पञ्च श्रावणेषु च पञ्चसु । संवत्सरेषु पञ्चैताः प्रोक्ता पूष्णो निवृत्तयः ॥ १४२ माघे कृष्णे च सप्तम्यां मुहूर्ते रौद्रनामनि । हस्तेभिजिदि(?) युक्तोऽर्को दक्षिणातो निवर्तते ॥१४३ चतुर्थ्यां वारणे शुक्ले द्वितीयावृत्तिरिष्यते । कृष्णे पुष्ये तृतीया तु प्रतिपद्यभिधीयते ॥ १४४ मूले कृष्ण त्रयोदश्यां चतुर्थी चापि जायते । कृत्तिकायां दशम्यां च शुक्ले भवति पञ्चमी ॥ १४५ उत्तरे चायने पञ्च वर्षेषु च पञ्चसु । माघमासेषु ताः प्रोक्ताः पञ्चकावृत्तयो रवेः ॥ १४६ वीथी में सूर्यके दक्षिणायनका प्रारम्भ होता है ॥ १३५-१३६ ।। आषाढ मासकी पूर्णिमाके दिन पांच वर्ष प्रमाण युगकी पूर्णता और श्रावण कृष्णा प्रतिपदाके दिन चन्द्रका अभिजित् नक्षत्रके साथ योग होनेपर उस युगका प्रारम्भ होता है ॥ १३७ ॥ प्रथम वीथीसे दक्षिणायनका तथा अन्तिम वीथीसे उत्तरायणका प्रारभ्म होता है । इसको ही दक्षिणायन एवं उत्तरायणकी प्रथम आवृत्ति कहा जाता है ।। १३८ । दक्षिण आवृत्ति एकको आदि लेकर दो से अधिक (१, ३, ५, ७, ९, )तथा उत्तर आवृत्ति दोको आदि लेकर दो से अधिक (२, ४, ६, ८, १०)होती जाती है । दोनों ही आवृत्तियोंमें गच्छका प्रमाण पांच है ॥ १३९ ।। श्रावण कृष्णा त्रयोदशीको [ मृगशीर्षा नक्षत्रमें ] द्वितीय आवृत्ति मानी जाती है। इसी मासमें शुक्ल पक्षकी दशमीको विशाखा नक्षत्र में तृतीय आवृत्ति होती है ॥ १४० ॥ कृष्ण पक्षकी सप्तमीके दिन रेवती नक्षत्रके होनेपर चौथी और शुक्ल पक्षकी चतुर्थीको पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्रमें पांचवीं आवृत्ति होती है ।। १४१ ।। इस प्रकार पांच वर्षों के भीतर पांच श्रावण मासोंमें दक्षिण अयनमें ये पांच सूर्यकी आवृत्तियां कही गई हैं । १४२ ॥ माघ मासमें कृष्ण पक्षकी सप्तमीको रौद्र नामक मुहूर्तमें हस्त अभिजित् (?) नक्षत्रका योग होनेपर सूर्य दक्षिणायनको छोड़कर उत्तरायणमें जाता है ।। १४३ ॥ शुक्ल पक्षकी चतुर्थीके दिन शतभिष नक्षत्रमें द्वितीय आवृत्ति मानी जाती है। कृष्ण पक्षकी प्रतिपदाको पुष्य नक्षत्रके रहनेपर तृतीय आवृत्ति कही जाती है ॥ १४४ ॥ कृष्ण पक्षकी त्रयोदशीको मूल नक्षत्रमें चौथी तथा शुक्ल पक्षकी दशमीको कृत्तिका नक्षत्रमें पांचवीं आवृत्ति होती है ।। १४५ ॥ पांच वर्षों के भीतर पांच माघ मासोंमें उत्तरायणमें सूर्यकी वे पांच आवृत्तियां कही गई हैं ॥ १४६ ॥ १मा ए प्रारम्भस्यायन' । २. पूष्णा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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