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________________ -६.१२९] षष्ठो विभागः {११९ शून्यत्रिकाष्टकैकेन यल्लब्धं परिधीन् हृते । सा तापतिमिरे तत्र हानिर्वृद्धिदिने दिने ॥ १२२ अष्टाशीति शते द्वे च त्रिंशदष्टशतानि तु । सहस्रभागकाः षट् च हानिवृद्धचन्धिषष्ठके ॥ १२३ ।२८८ ॥ १६३०। त्रिसप्तति-शतं भागाः सप्तादशशतं पुनः । चतुर्विशतियुतं हानिर्वृद्धिः स्याद्वाह्यमण्डले ॥ १२४ ।१७३ । १५३४।। शतं त्रिसप्ततिभूयो द्वादशाप्रशतांशकाः । तापान्धकारयोर्हानिर्वृद्धिः स्यान्मध्यमण्डले ॥ १२५ । १७३। १२। द्विसप्तति शतं व्यकत्रिंशत्रिशतमंशकाः । तापान्धकारयोर्हानिर्वृद्धिश्च प्रथमे पथि ॥ १२६ ।१७२ । ३२३ । सप्तादश पुनः पञ्चशतद्वादशभागकाः । आतपध्वान्तयोर्हानिर्वृद्धिः स्यान्मेरुमण्डले ॥ १२७ ।१७।१३। उदयास्तु रवेर्नीले त्रिषष्टिनिषधेऽपि च । हरिरम्यकयोश्च द्वौ दयेकविंशशतं जले ॥ १२८ ।६३ । ११९ । दशोत्तरं सहस्रार्धं चारक्षेत्र विवस्वतः । लावणे च द्वयं तच्च षट्कं स्याद्धातकीध्वजे ॥ १२९ । ५१०। शून्य, तीन, आठ और एक (१८३०) अर्थात् एक हजार आठ सौ तीसका परिधियोंमें भाग देने पर जो लब्ध हो वह प्रतिदिन होने वाली ताप व तमकी हानि-वृद्धिका प्रमाण होता है ।। १२२ ॥ यह हानि-वृद्धि लवण समुद्रके छठे भागमें दो सौ अठासी योजन और एक योजनके एक हजार आठ सौ तीस भागोंमेंसे छह भाग प्रमाण है - ५२७०४६: १८३० = २८८, ई. यो. ॥ १२३ ॥ यह हानि-वृद्धि बाह्य वीथीमें एक सौ तिहत्तर योजन और एक योजनके एक हजार आठ सौ तीस भागोंमेंसे सत्तारह सौ चौबीस भाग प्रमाण है-३१८३१४:१८३० - १७३३३३४ यो. ॥ १२४ ॥ मध्य वीथीमें ताप और तमकी वह हानि-वृद्धि एक सौ तिहत्तर योजन और एक योजनके अठारह सौ तीस भागोंमें एक सौ बारह भाग प्रमाण है-३१६७०२: ४१८ = १७३११३३. यो. ॥ १२५ ॥ ताप और तमकी हानि-वृद्धि प्रथम पथमें एक सौ बहत्तर योजन और एक योजनके एक हजार आठ सौ तीस भागों से तीन सौ उनतीस भाग मात्र है-- ३१५०८९ :- १८३०=१७२३२३९. यो. ॥१२६।। ताप और तमकी वह हानि-वृद्धि मेरुकी परिधिमें सत्तरह योजन और एक योजनके एक हजार आठ सौ तीस भागोंमेंसे पांच सौ बारह भाग मात्र है- ३१६२२ : १८३०= १७१.१३. यो. ।। १२७ ।। ___ सूर्य के उदय (दिनगतिमान) निषध और नील पर्वतपर तिरेसठ (६३), हरि और रम्यक क्षेत्रोंमें दो (२) तथा जल अर्थात् लवण समुद्र में एक सौ उन्नीस (११९) हैं- ६३+२+ ११९= १८४ ॥ १२८॥ सूर्यका चारक्षेत्र [ जंबूद्वीपमें ] सहस्रका आधा अर्थात् पांच सौ और दस योजन १ शतान्वित । २ मा प विंशत्रिंशत । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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