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________________ ११८] लोकविभागः [६.११३बाहिरे मण्डले याति भास्करे सर्वमण्डले । परिधिश्चातपस्यापि तिमिरस्य निशम्यताम् ॥ ११३ नियुतं पञ्चसहस्राणि नवाधिकचतुःशतम् । पञ्चमांशं च तापश्च षष्ठांशे लवणोदधेः ॥ ११४ ।१०५४०९ ।। त्रीण्येकमेकमष्टौ च पञ्चकं पञ्चमांशकान् । चतुरोऽम्बुधिषष्ठांशे तमसः परिधिर्भवेत् ॥ ११५ । १५८११३।५। सहस्राणां त्रिष्टि च त्रिशतं द्विघ्नविंशतिम् । पञ्चमांशौ भवेत्तापपरिधिर्मध्यमण्डले ॥ ११६ ।६३३४० । २।। सहस्राणां भवेत्पञ्चनवति दशकं पुनः । त्रिपञ्चांशान् परिक्षेपस्तमसो मध्यमण्डले ॥ ११७ ।९५०१०।३ । स त्रिषष्टि सहस्राणां सप्तादशभिरन्विताम् । चतुःपञ्चाशकांस्तापस्तिष्ठेदभ्यन्तरे पथि ॥ ११८ ।६३०१७ । । सहस्राणां च चत्वारि नवति शतपञ्चकम् । षड्विंशति दशांशांश्च सप्त चाभ्यन्तरे तमः ॥ ११९ । ९४५२६ । । चतुर्विशतिसंयुक्तं त्रिशतं षट्सहस्रकम् । द्वौ पञ्चमांशको तापः सुराद्रिपरिधौ भवेत् ॥ १२० । ६३२४ ।। चतुःशतं सहस्राणां नवकं' षडशीतिकम् । त्रिपञ्चमांशकान् मेरुपरिधौ तिमिरं भवेत् ॥ १२१ ।९४८६ ।। - सूर्यके बाह्य मार्गमें संचार करनेपर सब वीथियोमें ताप और तमको परिधिका जो प्रमाण होता है उसे सुनिये ॥ ११३ ।। उस समय लवण समुद्रके छठे भागमें तापकी परिधि एक लाख पांच हजार चार सौ नौ योजन तथा एक योजनके पांचवें भाग (५२७.०४६४१२ = १०५४०९६) प्रमाण होती है ।। ११४ ।। लवण समुद्रके छठे भागमें तमकी परिधि अंकक्रमसे तीन, एक, एक, आठ, पांच और एक अर्थात् एक लाख अट्ठावन हजार एक सौ तेरह योजन और एक योजनके पांच भागोंमेंसे चार भाग (५२७०४६४१८ = १५८११३६) प्रमाण होती है ॥ ११५ ॥ मध्यम वीथीमें तापकी परिधि तिरेसठ हजार तीन सौ चालीस योजन तथा एक योजनके पांच भागोंमेंसे दो भाग ( ३१६४०२४१२ = ६३३४०३) प्रमाण होती है ।। ११६ ॥ मध्य वीथीमें तमकी परिधि पंचानबै हजार दस योजन और एक योजनके पांच भागोंमें तीन भाग (२१६:२४१ = ९५०१०३) प्रमाण होती है ॥ ११७ ॥ अभ्यन्तर मार्गमें तापको परिधि तिरेसठ हजार सत्तरह योजन और एक योजनके पांच भागोमें चार भाग (३१५९९९४१२ = ६३०१७६) प्रमाण होती है ॥ ११८॥ अभ्यन्तर मार्गमें तमकी परिधिका प्रमाण चौरानब हजार पांच सौ छब्बीस योजन और एक योजनके दस भागोंमेंसे सात भाग ( ३१५९६९x१८ = ९४५२६५.) प्रमाण होती है ॥ ११९ ॥ मेरुकी परिधिमें तापका प्रमाण छह हजार तीन सौ चौबीस योजन और एक योजनके पांच भागोंमें दो भाग ( ३१६३२४१२ = ६३२४३ ) मात्र होता है ।। १२० ।। मेरुकी परिधिमें तमका प्रमाण नौ हजार चार सौ छयासी योजन और एक योजनके पांच भागोंमें तीन भाग (३१६२२४१८ = ९४८६६) मात्र होता है ।। १२१ ॥ या ननि। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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