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________________ -६.११२] षष्ठो विभामः त्रिषष्टि च सहस्राणि पञ्चघ्नं चाष्टषष्टिकम् । द्विपञ्चमांशको मध्ये तमसः परिधिः पथि ॥१०५ । ६३३४०।२। चतुःशतमशोति च षट्कं नवसहस्रकम् । त्रिपञ्चमांशकान् मेरोः परिधावातपो भवेत् ॥ १०६ । ९४८६ । ३। त्रिशतं षट्सहस्रं च चतुर्विशतिमेव च । द्विपञ्चमांशको मेरो: परिधौ तिमिरं भवेत् ॥ १०७ ।६३२४ । । मध्यमे मण्डले याति भास्करे सर्वमण्डले । तापक्षेत्रस्य परिधिस्तमसश्च समो भवेत् ॥ १०८ एक षट् सप्तककं च त्रिकमेकं द्विभागकम् । परिधिश्चाधिषष्ठांशे तापस्य तमसश्च वै ॥१०९ सप्तति च सहस्राणि नवार्ध चाष्टसप्ततिम् । द्वयंशं च परिधिस्तापतमसो बाह्यमण्डले ।। ११० ।७९५७८ ।। अष्टसप्ततिसहस्राणि शतसप्त-द्विसप्ततिम् । चतुर्थाशं च तापः स्यात् तमसश्चाभ्यन्तरे पथि ॥१११ । ७८७७२। । सहस्रसप्तकं पञ्चयुतं नवशतं पुनः । द्वयंशं मेरुपरिक्षेपे तापश्च तिमिरं भवेत् ॥ ११२ प्रमाण होती है ॥ १०४ ।। मध्यम मार्गमें तमकी परिधि तिरेसठ हजार और पांचगुणित अड़सठ (६८४५) अर्थात् तीन सौ चालीस योजन तथा एक योजनके पांच भागोंमें दो भाग (६३३४०३ ) प्रमाण होती है ।। १०५ ।। मेरु पर्वतकी परिधिमें नौ हजार चार सौ अस्सी और छह अर्थात् छयासी योजन तथा एक योजनके पांच भागोंमेंसे तीन भाग (९४८६३) प्रमाण ताप होता है ।। १०६ । मेरुकी परिधिमें छह हजार तोन सौ चौबीस योजन तथा एक योजनके पांच भागोंमेंसे दो भाग (६३२४३) प्रमाण तम होता है ।। १०७ ।। सूर्यके मध्यम वीथीमें संचार करनेपर सब वीथियों में तापक्षेत्र और तमकी परिधि समान होती है ॥ १०८ ॥ उस समय लवण समुद्रके छठे भागमें ताप और तमकी परिधि अंकक्रमसे एक, छह, सात, एक, तीन और एक अर्थात् एक लाख इकतीस हजार सात सौ इकसठ योजन तथा एक योजनके द्वितीय भाग (५२७०४६४१५ = १३१७६१३) प्रमाण होती है ॥ १०९ ॥ बाह्य वीथीमें ताप और तमकी परिधि सत्तर, नौ और अर्ध हजार अर्थात् उन्यासी हजार पांच सौ अठत्तर योजन तथा एक योजनके द्वितीय भाग (३१६३१४४१५ = ७९५७८३) प्रमाण होती है ॥ ११० ।। अभ्यन्तर मार्गमें ताप और तमकी परिधि अठत्तर हजार सात सौ बहत्तर योजन और एक योजनके चतुर्थ भाग (३१५०६ ९५१५ =७८७७२३) प्रमाण होती है ॥ १११ ॥ मेरुकी परिधिमें ताप और तम सात हजार नौ सौ पांच योजन तथा एक योजनके द्वितीय भाग (३१६३२४१५ = ७९०५३) प्रमाण होते हैं । ११२ ॥ १५ वतपो। २५ एकषष्ठि सप्त। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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