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________________ ११६ ] लोकविभागः [६.९७तापः सुराद्रिमध्याच्च यावल्लवणषष्ठकम् । योजनानामधश्चोर्ध्वमष्टादशशतं शतम् ॥९७ ।८३३३३ । । १८०० । १०० । षट् चतुष्कं च शून्यं च सप्तकं द्वौ च पञ्चकम् । नीरधेष्वष्ट[ष्षष्ठ]भागस्य परिधिः परिकीर्तितः।।९८ ।५२७०४६ । अभ्यन्तरे रवी याति मण्डले सर्वमण्डले। तापक्षेत्रस्य परिधिस्तमसश्च निशम्यताम् ॥ ९९ त्रिककाष्टपञ्चकं चतुरः पञ्चमांशकान् । मण्डलस्याब्धिषष्ठस्य तापस्य परिधिर्भवेत् ॥ १०० ।१५८११३ । । नव शून्यं चतुः पञ्च शून्यकं पञ्चमांशकम् । मण्डलस्याब्धिषष्ठस्य तमसः परिधिर्भवेत् ॥ १०१ ।१०५४०९ । । चतुर्नव चतुः पञ्च नवकं पञ्चमांशकम् । तापस्य परिधिर्बाह्यमण्डलस्य भवेद् ध्रुवम् ॥ १०२ ।९५४९४ । । द्विकषट्कं षट् त्रिकं षट्कं चतुःपञ्चांशकान् पुनः । तमसः परिधिर्बाह्यमाडले निश्चितो भवेत् ॥ नवति पञ्चभिर्युक्तां सहस्राणां दशापि च । त्रिपञ्चमांशकांस्तापपरिधिर्मध्यमे पथि ॥ १०४ । ९५०१०। । तीन भागोंमें रात्रि और दो भागोंमें दिन होता है ॥ ९६ ।। सूर्यताप मेरु पर्वतके मध्य भागसे लेकर लवण समुद्रके छठे भाग तक (जं. ५०००० + ल. २ ० ०० ०० == ८३३३३३) नीचे अठारह सौ (१८००) और ऊपर एक सौ (१००) योजन प्रमाण माना गया है ।। ९७ ।। लवण समुद्रके छठे भागकी परिधिका प्रमाण अंक क्रमसे छह, चार, शून्य, सात, दो और पांच; अर्थात् पांच लाख सत्ताईस हजार छयालीस (५२७०४६) योजन कहा गया है ।। ९८ ॥ सूर्यके अभ्यन्तर वीथीमें संचार करनेपर सब वीथियोंमें जो तापक्षेत्र और तमक्षेत्रको परिधिका प्रमाण होता है उसे सुनिये ॥ ९९ ।। उस समय लवण समुद्रके छठे भागमें तापकी परिधि अंककमसे तीन, एक, एक, आठ, पांच और एक ; अर्थात एक लाख अट्ठावन हजार एक सौ तेरह योजन तथा एक योजनके पांच भागोंमेंसे चार भाग (१५८११३६) प्रमाण होती है ॥१०० ।। लवण समुद्रके छठे भागमें तमकी परिधि अंकक्रमसे नौ, शून्य, चार, पांच, शून्य और एक अर्थात् एक लाख पांच हजार चार सौ नौ योजन तथा एक योजनके पांचवें भाग (१०५४०९३)प्रमाण होती है ।। १०१ ॥ बाह्य वीथीमें तापकी परिधि अंक क्रमसे चार, नौ, चार, पांच और नौ; अर्थात् पंचानबे हजार चार सौ चौरानबै योजन तथा एक योजनके पांचवें भाग (९५४९४६) मात्र होती है ।। १०२ ।। बाह्य वीथी में तमकी परिधि अंकक्रमसे दो, छह, छह, तीन और छह ; अर्थात् तिरेसठ हजार छह सौ बासठ योजन तथा एक योजनके पांच भागोंमेंसे चार भाग (६३६६२६ ) प्रमाण निश्चित है ॥१०३ ॥ मध्यम मार्गमें तापकी परिधि पंचानबै हजार दस योजन और एक योजनके पांच भागोंमें तीन भाग ( ९५०१०३ ) १ ब नीरदे । २ ब ब्दिषष्ठस्य । ३ आ प द्विकषकं त्रिकं षट्कं षट्त्रिकं षटकं चतुः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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