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________________ ११०] लोकविभाग: [६.५९अन्तरं रविमेर्वोर्यत्तदिन्दोर्मध्यबाह्मजम् । विशेषस्त्वेकषष्ठघंशाश्चत्वारोऽष्टौ च हीनकाः ॥ ५९ पूर्वोक्ते तूत्तरे होने चोपान्त्यान्तरमिष्यते । तेनैव रहितं भूयस्तृतीयं बाहिराद्भवेत् ॥ ६० नवतिश्च नवापि स्युः सहस्राण्यथ षट्छतम् । चत्वारिंशच्च शशिनोरन्तरं पूर्वमण्डले ॥ ६१ अत्रोत्तरं च विज्ञेयं योजनानां द्विसप्ततिः । सप्तद्विकचतुष्काणामष्टो पञ्चत्रयोंऽशकाः ॥ ६२ उत्तरेण सहानेन तदनन्तरमन्तरम् । तेनैव सहितं भूयस्तृतीयं चान्तरं भवेत् ॥ ६३ मध्यमान्त्यान्तरे चेन्द्रोः सूर्ययोरिव भाषिते । एकषष्ठयंशकद्रूने अष्टाभिर्दृयष्टकरपि ॥ ६४ __ मेरुसे सूर्यका जो मध्यम और बाह्य अन्तर है वही मेरुसे चन्द्रका भी मध्यम और बाह्य अन्तर है। विशेष इतना है कि सूर्य और मेरुके मध्यगत अन्तरकी अपेक्षा चन्द्र और मेरुके मध्यगत मध्यम अन्तर इकसठ भागोंमेंसे चार भागों()से हीन है तथा बाह्य अन्तर आठ भागों (E) से हीन है (देखिये पीछे श्लोक ४४-४५) ।। ५९ ॥ विशेषार्थ- यहां सूर्यकी अपेक्षा मेरुसे चन्द्रका जो मध्यम अन्तर चार बटे इकसठ भागों (1) से हीन तथा बाह्य अन्तर आठ वटे इकसठ भागों (क) से हीन बतलाया गया है उसका कारण दोनोंके विमानगत विस्तारका भेद है-- सूर्यके विमानका विस्तार ६ यो. और चन्द्रके विमानका विस्तार ६ यो. है । इस प्रकार सूर्य के विमानकी अपेक्षा चन्द्रका विमान यो. अधिक विस्तृत है । अब जब चन्द्रका संचार मध्यम वीथीमें होगा तब उसके विमानका आधा भाग इस ओर और आधा भाग उस ओर रहेगा । अत एव उसके इस अन्तरमें सूर्य के अन्तरकी अपेक्षा ( २) भागोंकी हानि होगी । परन्तु चन्द्रका बाह्य मार्ग में संचार होनेपर उसका विमान चूंकि संचारक्षेत्र (५१०१६ यो.) भीतर ही रहेगा, अतएव सूर्यकी अपेक्षा चन्द्रका विमान जितना अधिक विस्तृत है उतनी ( =) ही उसके बाह्य अन्तरमें सूर्य के अन्तरकी अपेक्षा हानि भी रहेगी। ___इस बाह्य अन्तरमेंसे पूर्वोक्त चयको कम कर देनेपर शेष उपान्त्य अन्तर माना जाता है, उसी चयसे रहित वह उपान्त्य अन्तर बाह्य अन्तरकी अपेक्षा तीसरा अन्तर होता है-- ४५३२९१३-३६१५७४५२९३१२७ उपान्त्य अन्तर; ४५२९३१२२-३६१२७ = ४५२५७बाह्यकी अपेक्षा तीसरा अन्तर ॥ ६०॥ प्रथम वीथीमें स्थित दोनों चन्द्रोंके मध्यमें निन्यानबै हजार छह सौ चालीस (९९६४०) योजनका अन्तर है ।। ६१ ।। बहत्तर योजन और एक योजनके चार सौ सत्ताईस अंशोंमें तीन सौ अट्ठावन अंश (३६१५७४२=७२३५६ दोनों ओरका दुगुणा दिवसगतिक्षेत्र) इतना यहां चयका प्रमाण है ।। ६२ ॥ प्रथम वीथीमें स्थित दोनों चन्द्रोंके उपर्युक्त अन्तरमें इस चयके मिला देनेपर अनन्तर (द्वितीय) अन्तरका प्रमाण होता है और फिर इसमें उसी चयको मिला देनेसे तृतीय अन्तरका प्रमाण होता है - ९९६४०+७२३३७=९९७१२३५७ यो.; ९९७१२३३७+७२३५७=९९७८५ २६७ यो. ॥ ६३ ॥ दोनों चन्द्रोंका मध्यम और अन्तिम अन्तर दोन सूर्योंके समान कहा गया है । विशेष इतना है कि सूर्योके मध्यम अन्तरकी अपेक्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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