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________________ लोकविभागः [ ६.४६ नवनवतिसहस्राणि षट्छतानि भवन्ति च । चत्वारिंशच्च मध्यं स्यावन्तरमण्डलसूर्ययोः ॥ ४६ पञ्चत्रिंशत्पुनर्भागा योजनानां च पञ्चकम् । एकैकस्मिन् भवेत् क्षेपस्तस्यानन्तरमण्डले ॥ ४७ ५। ६५ । नियुतं शतमेकं च पञ्चशात्मध्यमान्तरम् । षष्ठ्या युक्तैः शतैः षड्र्भािनियुतं बाह्यमण्डले ॥ ४८ आसन्नमण्डलस्यास्य परिधेश्च प्रमाणकम् । नवाष्टशून्यपञ्चकं त्रयमङ्कक्रमेण च ॥ ४९ मण्डले मण्डले क्षेपः परिधौ दश सप्त च । अष्टत्रिंशच्च भागा स्युरेकषष्ठ्यास्तु साधिकाः ।। ५० १७ । ३६ । नियुतानां त्रिकं भूयः सहस्रं षोडशाहतं । शतानि सप्त द्वे चैव परिधिर्मध्यमण्डले ॥ ५१ अष्टादशसहस्राणि नियुतानामपि त्रिकम् । त्रिशतं दश चत्वारि परिधिर्बाह्यमण्डले ।। ५२ १०८] V अब यदि इस समस्त चारक्षेत्र मेंसे उपर्युक्त १८४ वीथियोंके विस्तारको कम करके शेषमें एक कम वीथियोंके प्रमाणका भाग दें तो उन सब वीथियोंके बीच निम्न अन्तरका प्रमाण प्राप्त होता है - समस्त चारक्षेत्र ५१० = १५ समस्त वीथियों का विस्तार ६४१८४ -११, २०५६ - ८६११ : (१८४ - १ ) =२ यो । इसमें सूर्यबिम्बके विस्तारको मिला देनेसे सूर्य के प्रतिदिन गमनक्षेत्रका प्रमाण प्राप्त हो जाता है – २ + ६ = २६ यो. । इस दैवसिक गमनक्षेत्र के प्रमाणको अभ्यन्तर ( प्रथम ) वीथी में स्थित सूर्य और मेरु पर्वतके बीच रहनेवाले उपर्युक्त अन्तर प्रमाणमें मिला देनेसे द्वितीय वीथीमें स्थित सूर्य और मेरुके बीच अन्तरका प्रमाण होता है - ४४८२० + २६६ =४४८२२६६ यो. । इस प्रकार मेरु और सूर्यके बीच पूर्व पूर्वके अन्तर प्रमाण में उत्तरोत्तर इस दैवसिक गमन क्षेत्र के प्रमाणको मिलाते जानेसे तृतीय व चतुर्थ आदि आगेकी वीथियोंमें स्थित सूर्य और मेरुके बीचके अन्तरका प्रमाण जाना जाता है । अभ्यन्तर वीथी में स्थित दोनों सूर्योके मध्य में निन्यानबे हजार छह सौ चालीस ( ९९६४० ) योजन मात्र अन्तर होता है ।। ४६ ।। अभ्यन्तर वीथीमें स्थित दोनों सूर्योके मध्यगत इस अन्तरप्रमाण में उत्तरोत्तर पांच योजन और एक योजनके इकसठ भागों में से पैंतीस भागों (दुगुणा दिवसगतिक्षेत्र - २६x२= ५५ ) को मिलानेसे द्वितीयादि अनन्तर वीथियोंमें स्थित दोनों सूर्योके मध्यगत अन्तरका प्रमाण होता है ॥ ४७॥ दोनों सूर्योका अन्तर मध्यम वीथी में एक लाख एक सौ पचास योजन तथा वही बाह्य वीथी में एक लाख छह सौ साठ योजन मात्र होता है – ९९६४०+ (५३ × १३३ ) = १०० १५०यो. मध्यम अन्तर; ९९६४० + (५५x१८३ ) =१००६६० यो. बाह्य वीथीगत दोनों सूर्योका अन्तर ॥ ४८ ॥ इस अभ्यन्तर वीथी की परिधिका प्रमाण अंकक्रमसे नौ, आठ, शून्य, पांच, एक और तीन ( ३१५०८९ ) ; इतने योजन मात्र है ।। ४९ ।। आगे आगेकी ( द्वितीय तृतीयादि) वीथियोंके परिधिप्रमाणको लाने के लिये पूर्व पूर्व वीथीके परिधिप्रमाणमें दस और सात अर्थात् सत्तरह योजन तथा एक योजनके इकसठ भागोंमेंसे अड़तीस भागों ( १७ ) को क्रमशः मिलाते जाना चाहिये ॥ ५० ॥ मध्य वीथीमें परिधिका प्रमाण तीन लाख सोलह हजार सात सौ दो योजन मात्र है - ३१५०८९+ (१७३ १×१३) ३१६७०२ यो. ॥ ५१ ॥ बाह्य वीथीमें इस परिधिका प्रमाण तीन लाख अठारह हजार तीन सौ चौदह योजन मात्र है -- ३१५०८९+ -- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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