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________________ -६.४५] षष्ठो विभागः [१०७ द्वादशव शतानि स्युश्चतुःषठचाधिकानि हि । पुष्करार्धे बहिश्चन्द्रास्तावन्तोऽपि च भास्कराः ॥३९ तारकाकीर्णमाकाशमालोकान्तादितोऽमुतः । पुष्यस्थाः सर्वसूर्यास्तु चन्द्रास्त्वभिजिदि स्थिताः॥४० चत्वारिंशच्च चत्वारि सहस्राणि शताष्टकम् । विशतिश्चान्तरं मेरो रवेश्चासन्नमण्डले ॥४१ चत्वारिंशत्तथाष्टौ च एकषष्टिकृतांशकाः । द्वियोजने च प्रक्षेपस्तस्यानन्तरमण्डले ॥ ४२ स एव गुणितक्षेपः प्रक्षिप्तव्यो यथेप्सिते। आ बाह्यमण्डलादेवं मेरुसूर्यान्तरं भवेत् ॥ ४३ चत्वारिंशच्च पञ्चापि सहस्राण्यथ सप्ततिः । पञ्च चान्तरमाख्यातं मध्यमे मण्डले रवेः ॥ ४४ चत्वारिंशच्च पञ्चापि सहस्राणि शतत्रयम् । त्रिशच्च मण्डले बाह्ये मेरुसूर्यान्तरं भवेत् ॥ ४५ है। इस अन्त्य धनमें फिरसे आदिको मिलाकर गच्छके अर्ध भागसे गुणित करनेपर सर्वधन प्राप्त होता है ॥ ३८॥ उदाहरण--प्रकृतमें आदिका प्रमाण १४४, चयका ४ और गच्छका प्रमाण ८ है । अत एव (८४४)-४+१४४ = १७२ अन्तिम धन; १७२+१४४४६ = १२६४ = (१४४+१४८ +१५२+१५६+१६०+१६४+१६८+१७२) सर्वधन । बाह्य पुष्करार्धमें बारह सौ चौंसठ (१२६४) चन्द्र और उतने ही सूर्य भी हैं ।।३९।। यहां लोक पर्यन्त आकाश ताराओंसे व्याप्त है । सब सूर्य तो पुष्य नक्षत्रपर स्थित होते हैं, किन्तु चन्द्रमा अभिजित् नक्षत्रपर स्थित होते हैं । ४० ।। मेरुसे अभ्यन्तर मण्डल (वीथी) में स्थित सूर्यका अन्तर चवालीस हजार आठ सौ बीस (४४८२०) योजन प्रमाण रहता है ॥४१॥ इसमें दो योजन तथा एक योजनके इकसठ भागोंमेंसे चालीस और आठ अर्थात् अड़तालीस भाग (२१६) प्रमाण [ दिवसगतिका ] प्रक्षेप करनेपर उतना अनन्तर (द्वितीय) मण्डलमें स्थित सूर्यका मेरुसे अन्तर रहता है- ४४८२०+ २४६४४८२२१६ ॥४२॥ इसी प्रकारसे बाह्य मण्डल तक उसी गुणित ( तृतीय मण्डलमें दुगुणा, चतुर्थमें तिगुणा इत्यादि) प्रक्षेपको मिलाते जानेसे विवक्षित मण्डलमें स्थित सूर्यका मेरुसे अन्तरप्रमाण होता है ॥ ४३ ॥ मध्यम मण्डलमें स्थित सूर्यके इस अन्तरका प्रमाण पेंतालीस हजार पचत्तर योजन मात्र होता है ४४८२०+ (२१६४९१३)=४५०७५ यो. ॥ ४४ ॥ बाह्य मण्डलमें मेरु और सूर्यका यह अन्तर पैंतालीस हजार तीन सौ तीस योजन मात्र होता है ४४८२०+(२१६४१८३) = ४५३३० यो. ॥ ४५ ॥ विशेषार्थ - सूर्यका चार क्षेत्र १ लाख योजन विस्तृत जंबूद्वीपके भीतर १८० योजन मात्र है । इसे दुगुणा करनेपर दोनों ओरके चार क्षेत्रका प्रमाण ३६० योजन होता है। इसको जंबूद्वीपके विस्तारमेंसे कम कर देनेपर शेष अभ्यन्तर वीथीका विस्तार होता है-१०००००३६० = ९९६४० यो. । यही जंबूद्वीपस्थ उभय सूर्योके बीच अन्तरका भी प्रमाण होता है। इसमेंसे मेरु पर्वतके विस्तारको कम करके शेषको आधा कर देनेसे उस अभ्यन्तर वीथीमें स्थित सूर्य और मेरुके बीच अन्तरका प्रमाण होता है- १९६४१०००० ४४८२० यो. । जंबूद्वीपके अतिरिक्त सूर्यका चारक्षेत्र ३३०१६ यो. मात्र लवण समुद्र में भी है। इस प्रकार उसके समस्त चारक्षेत्रका प्रमाण १८०+३३०१६ = ५१०१६ यो. होता है। इतने चार क्षेत्रमें सूर्यकी १८४ वीथियां है। इनमेंसे वह क्रमशः प्रतिदिन एक एक वीथीमें संचार करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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