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________________ १०६] लोकविभागः [ ६.३३कालोदे चन्द्रवीभ्यः स्युस्त्रिशतं वश पञ्च च । अष्टात्रिंशच्छतानि स्युश्चतुःषष्टिश्च भास्वताम् ॥३३ चत्वारिंशत्सहस्रार्धमिन्दुवीथ्योऽधंपुष्करे । षट्षष्टिस्तु शतानि स्युश्चतुर्विशानि भास्वताम् ॥ ।५४०। मानुषोत्तरशैलाच्च' द्वीपसागरवेदिका-। मूलतो नियुतार्थेन ततो लक्षण मण्डलम् ॥ ३५ ५०००० पुष्करार्धाद्यवलये द्विगुणा च द्विसप्ततिः । चन्द्रसूर्यास्ततोऽन्येषु चतुष्कं चोत्तरं पृथक् ॥ ३६ आदेरादिस्तु विज्ञयो द्विगुणद्विगुणक्रमः । परिधौ च स्वके स्व-स्वचन्द्रादित्यहृतेऽन्तरे ॥ ३७ गच्छोत्तरसमाभ्यासात्त्यजेदुत्तरमादियुक् । अन्त्यमादियुतं भूयो गच्छार्धगुणितं धनम् ॥ ३८ आ १४४ । उ ४ । ग ८॥ कालोद समुद्र में चन्द्रवीथियां तीन सौ दस और पांच अर्थात् तीन सौ पन्द्रह (१५४ २१=३१५) तथा सूर्योंकी वीथियां अड़तीस सौ चौंसठ (१८४४२१=३८६४) हैं ।। ३३ ।। पुष्करार्ध द्वीपमें चन्द्रवीथियां हजारकी आधी और चालीस अर्थात् पांच सौ चालीस (१५४३६ = ५४०) तथा सूर्योकी वीथियां छयासठ सौ चौबीस (१८४४३६-६६२४) हैं ॥ ३४ ।। मानुषोत्तर पर्वतके आगे द्वीप-समुद्रोंकी वेदिकाके मूल भागसे आधा लाख (५००००) योजन जाकर प्रथम मण्डल (सूर्य-चन्द्रोंका वलय) है, उसके आगे उनका प्रत्येक मण्डल एक एक लाख (१०००००) योजन जाकर है॥ ३५॥ पुष्करार्ध द्वीपके प्रथम वलयमें दुगुणे बहत्तर (७२४२=१४४) अर्थात् एक सौ चवालीस सूर्य और चन्द्र स्थित हैं। इससे आगेके अन्य वलयोंमें वे पृथक् पृथक् चार चार चयसे अधिक (१४४, १४८, १५२, १५६, १६०, १६४, १६८, १७२) हैं ।। ३६।। आगेके द्वीप-समुद्रोंके प्रथम वलयमें पिछले द्वीप अथवा समुद्रके प्रथम वलयमें स्थित चन्द्रोंकी अपेक्षा क्रमसे दूने दूने चन्द्र जानना चाहिये । अपनी परिधिमें अपने अपने वलयगत चन्द्र और सूर्योंकी संख्याका भाग देनेपर वहां स्थित एक चन्द्रसे दूसरे चन्द्रका अन्तर जाना जाता है ॥ ३७ ।। . उदाहरण-द्वितीय पुष्करार्ध द्वीप सम्बन्धी प्रथम वलयकी सूचीका विस्तार ४६००००० योजन है, उसकी परिधि १४५४६४७७ यो. प्रमाण होती है । इस परिधिमें तद्गत सूर्य-चन्द्रोंकी संख्याका भाग देनेपर उन सूर्य और चन्द्रोंका बिम्ब सहित अन्तर इतना प्राप्त होता है -- १४५४६४७७:१४४ = १०१०१७ यो.। इसमेंसे चन्द्रबिम्ब और सूर्यबिम्बको कम कर देनेपर उनका बिम्बरहित अन्तर इस प्रकार प्राप्त हो जाता है-- चन्द्रबिम्बका विस्तार १६ SE; १०१० १७.२१४-६ =१०१०१६२४६ यो., चन्द्रबिम्बोंके मध्यका अन्तर । सूर्यबिम्बका विस्तार है६६७१३ १०१०१७२४४ -६९११=१०१०१६३६४ यो., सूर्यबिम्बोंके मध्यका अन्तर । गच्छ और चयको गुणित करनेसे जो प्राप्त हो उसमें से चयके प्रमाणको कम करके शेषमें आदिके प्रमाणको जोड़ देना चाहिये । इस प्रकारसे विवक्षित अन्तिम धन प्राप्त हो जाता १ आ प शैलाश्च । २ आ प 'वललये । ३ मा प 'नेषु । ४ आ "दित्यहृतेंतरं प'दित्ये हृतेन्तरे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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